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________________ और अष्टावक्र कहते हैं, मुक्त पुरुष को न तो महल से मोह है, और न झोपड़े से मोह है। इसे खयाल रखना । जिनका महलों से मोह छूट जाता उनका झोपड़ों से मोह बंध जाता है, लेकिन मोह जारी रहता । जिनका धन से मोह छूट जाता उनका निर्धनता से मोह बंध जाता है, लेकिन मोह जारी रहता । अष्टावक्र कहते हैं, 'कल्पनारहित, बंधनरहित और मुक्त बुद्धिवाले धीर पुरुष कभी बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा करते हैं।' जैसा हो, उसमें ही राजी हैं। महल, तो महल में राजी । सुख, तो सुख में राजी । सिंहासन, तो सिंहासन पर राजी । और कभी पहाड़ की कंदरायें, तो वे भी सुंदर हैं। सच तो यह है, मुक्त पुरुष महल में होता है तो महल प्रकाशित हो जाते हैं। मुक्त पुरुष कंदराओं में होता है, कंदरायें प्रकाशित हो जातीं। मुक्त पुरुष जहां होता वहीं सौंदर्य झरता । मुक्त पुरुष की मौजूदगी सभी चीजों को अपूर्व गरिमा से भर देती है। वह पत्थर छुए तो हीरा हो जाता है। हीरा छुए तो स्वभावतः हीरे में भी सुगंध आ जाती है। सोने में सुगंध । लेकिन मुक्त पुरुष का किसी चीज से कोई आग्रह नहीं है। ऐसा ही हो, ऐसा ही होगा तो ही मैं सुखी रहूंगा, ऐसा कोई आग्रह नहीं है। जैसा हो, उसमें वह राजी है। उसका राजीपन प्रगाढ़ है, गहरा है, पूर्ण है । समस्तरूपेण उसने स्वीकार कर लिया है। जो दिखाये प्रभु, जहां ले जाए उसके लिए राजी है । न वह महल छोड़ता है, न वह झोपड़े को चुनता है । जीता है सूखे पत्ते की भांति; हवा जहां ले जाए। 'धीर पुरुष के हृदय में पंडित, देवता और तीर्थ का पूजन कर तथा स्त्री, राजा और प्रियजन को देखकर कोई भी वासना नहीं होती ।' श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम् । दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।। 'धीर पुरुष के हृदय में पंडित, देवता और तीर्थ का पूजन कर... । '' तुम तो पूजन भी करते हो तो वहां भी वासना आ जाती है। तुम्हारा तो पूजन भी कामना से दूषित हो जाता है। तुम्हारे तो पूजन में भी सुगंध नहीं रहती, वासना की दुर्गंध आ जाती है। धीर पुरुष भी पूजन करता है, लेकिन उसके पूजन में और तुम्हारे पूजन में जमीन-आसमान जितना फर्क है। धीर पुरुष भी कभी मंदिर जाता है, कभी मग्न होकर प्रतिमा के सामने नाचता है। कभी गंगा भी नहाता है, कभी तीर्थों की यात्रा भी करता है, लेकिन उसके मन में कोई वासना नहीं है। मंदिर इसलिए नहीं जाता कि कुछ मांगना है; मंदिर भी परमात्मा का है। धीर पुरुष मंदिर भी जा सकता है, मस्जिद भी जा सकता है। । गुरुद्वारा भी जा सकता है, गिरजा भी जा सकता है। सभी परमात्मा का है। धीर पुरुष जहां है, वहीं मंदिर । कोई मंदिर में ही सुख लेगा ऐसा भी नहीं है, लेकिन मंदिर का कोई त्याग भी नहीं है। कभी पूजा भी कर सकता है। क्योंकि पूजन का भी एक मजा है। पूजन का भी एक रस है। पूजन भी एक अहोभाव है। लेकिन यह सब है अहोभाव, एक धन्यवाद । तूने खूब है उसके लिए धन्यवाद। और तुझसे मांगने की कोई चाह नहीं । और की कोई वासना नहीं है। तुम जाते भी मंदिर, झुकते भी, तो भी तुम्हारे हृदय में कुछ वासना है। कुछ मिल जाए। तुम निराकार, निरामय साक्षित्व 281
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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