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________________ में खड़े हो तो युद्ध के मैदान में जूझते रहो। जैसे हो, जहां हो, छोड़ दो अपने को वहीं । वहीं समर्पित हो जाओ। बहने दो संसार की हवाएं; तुम सूखे पत्ते हो जाओ । क्षिप्तः संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् । बस, फिर सब अपने से हो जायेगा । फिर कुछ और करने को नहीं है। तुम सूखे पत्ते क्या हुए, तुम्हारे जीवन में सारे अमृत की वर्षा हो जायेगी । जहां अपनी कोई आकांक्षा नहीं रहती वहां कोई दुख नहीं रह जाता। वहां कोई पराजय नहीं, विषाद नहीं। वहां कोई मान नहीं, सम्मान नहीं, अपमान नहीं। वहां कोई हार नहीं, जीत नहीं । क्षण-क्षण वहां परमात्मा बरसता है। उस परमात्मा का नाम ही स्वयं का छंद है। वह तुम्हारा ही गीत है जो तुम भूल बैठे। गुनगुनाओगे, फिर याद आ जायेगा। है।' असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादता । और जो सूखे पत्ते की भांति हो गया, ऐसे जिसके भीतर संसार न रहा – असंसारस्य । स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते । 'संसारमुक्त पुरुष को न तो कभी हर्ष है और न विषाद। वह शांतमना सदा विदेह की भांति शोभता अनुवाद में कुछ खो जाता लगता है। असंसारस्य- -अनुवाद में कहा है संसार - मुक्त पुरुष को । असंसारस्य का अर्थ होता है, जिसके भीतर संसार न रहा; या जिसके लिए संसार न रहा। संसार का अर्थ ही क्या है ? ये वृक्ष, ये चांद-तारे, ये थोड़े ही संसार हैं ! संसार का अर्थ है, भीतर बसी वासनाएं, कामनाएं, इच्छाएं – उनका जाल । कुछ पाने की इच्छा संसार है। कुछ होने की इच्छा संसार है । महत्वाकांक्षा संसार है। असंसारस्य – जिसके भीतर संसार न रहा, जिसमें संसार न रहा; या जो संसार में रहकर भी अब संसार का नहीं है । ऐसे व्यक्ति को कहां हर्ष, कहां विषाद ! स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते । ऐसे पुरुष का मन हो गया शीतल - शीतलमना । इसे भी समझना। जब तक जीवन में हर्ष और विषाद है तब तक तुम शीतल न हो सकोगे। क्योंकि हर्ष और विषाद, सुख और दुख, सफलता-असफलता ज्वर लाते हैं, उत्तेजना लाते हैं, उद्वेग लाते हैं। जब तुम दुखी होते हो तब तो बीमार होते ही हो, जब तुम सुखी होते हो तब भी बीमार होते हो । सुख' भी बीमारी है, क्योंकि उत्तेजक है। सुख में शांति कहां ? तुमने एक बात तो जान ली है कि दुख में शांति कहां? दूसरी बात जाननी है कि सुख में भी शांति कहां ? सुख में भी उत्तेजना जाती है। चित्त में खल हो जाती है। तुमने देखा न ? आदमी दुख में तो बच जाता है, कभी-कभी सुख मर जाता है। मैंने सुना, एक आदमी को दस लाख रुपये मिल गये लाटरी में। खबर आयी तो पत्नी घबड़ा गई। पत्नी ने कहा, पति आते ही होंगे... दस लाख ! दस रुपये का नोट भी कभी इकट्ठा इनके हाथ में नहीं पड़ा। दस लाख ! सह न सकेंगे इस सुख को । बहुत डर गई । ईसाई थी। पास में ही पादरी था, भागी गई। कहा कि आप कुछ उपाय करिये। पति आयें, इसके पहले कुछ उपाय करिये। दस लाख ! शुष्कपर्णवत जीयो 13
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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