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________________ व्यर्थ। फिर करना क्या? फिर उठना क्यों? फिर रोज सुबह जागना क्यों? फिर जाना क्यों दफ्तर? किसलिए? उसी दुख को फिर-फिर झेलने के लिए! वही उपद्रव जारी रखने के लिए! अपने ही जीवन के नरक को रोज-रोज पानी देने की जरूरत क्या है? खतम करो, समाप्त करो। पश्चिम के बहुत बड़े-बड़े विचारकों ने भी आत्मघात किया है। यह सोचने जैसा है। पूरब के किसी महाविचारक ने कभी आत्मघात नहीं किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, नागार्जुन, शंकर, रामानुज, निंबार्क, वल्लभ, कबीर, नानक, दादू, हजारों महापुरुषों की धारा है, इनमें से एक ने भी आत्मघात नहीं किया। इनमें से एक भी पागल नहीं हुआ। पश्चिम में बड़ी उल्टी बात है। पश्चिम में कोई बड़ा विचारक बिना पागल हुए बचता नहीं। हो ही जाता है पागल। अगर बच जाये तो इसका एक ही अर्थ है कि कोई बड़ा विचारक नहीं है वह। अभी दूर तक नहीं गया विचार में। अन्यथा विचार एक जगह लाकर खड़ा कर देता है, जिसके आगे कोई गति नहीं रहती। ध्यान का उपाय नहीं है। जहां विचार समाप्त हुआ, वहां अब क्या करना! आदमी विक्षिप्त होने लगता है। ध्यान का तो उपाय नहीं है। जहां संसार व्यर्थ हुआ, वहां आदमी आत्महत्या की सोचने लगता है। संन्यास का तो उपाय नहीं है, विकल्प नहीं है। ____ मैं जब तुमसे कहता हूं संसार में रहो, तो इसीलिए कहता हूं कि कहीं ऐसा न हो कि तुम कच्चे संसार के बाहर निकल आओ। लेकिन पता कैसे चलेगा कि कब तुम पक गये? और जिस दिन पक जाओगे, जिस दिन घर में आग लगेगी, उसी दिन कुआं खोदोगे? कुआं तो खोदना शुरू करो; जब आग लगेगी, लगेगी। कुआं तो तैयार रहे; जब आग लगेगी तो पानी कुएं का तैयार रहेगा, बुझा लेंगे। अब जिस दिन घर में आग लगेगी उसी दिन कुआं खोदने अगर बैठे, तो घर बचनेवाला नहीं है। - इसीलिए मैं कहता हूं, संसार को चलने दो और साथ ही साथ संन्यास के संगीत को भी जन्मने दो। और इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि संन्यास भी परमात्मा का है और संसार भी परमात्मा का है। सब उसका है। संन्यास संसार का विपरीत नहीं है, इसलिए कहीं भागने की जरूरत नहीं है। अब तुम मुझसे पूछते हो कि जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश क्या पलायन नहीं है? वही तो मैं कह रहा है। तम किससे पछ रहे हो? तम परी के शंकराचार्य से पछते तो बात ठीक थी। मझसे तो मत पछो। तम जाकर आचार्य तलसी से पछो. बात ठीक है। मनि देशभषण महाराज से पूछो, बात सही है। मुझसे पूछ रहे हो! यही तो मेरी क्रांति है संन्यास में कि संसार के साथ चल सकता है। मंदिर और दूकान को करीब लाने की कोशिश चल रही है कि जिस दिन दूकान चल जाये, मंदिर इतना दूर न हो कि तुम पहुंच न पाओ। मंदिर करीब होना चाहिए; पास ही होना चाहिए। एक कदम रखा कि मंदिर में पहुंच गये। तो तुम आत्मघात से बच सकोगे। फिर ध्यान रखना कि संन्यास एक तरह का आत्मघात है। बड़ा प्यारा आत्मघात है। अहंकार का विसर्जन है। तुम तो मरे! तुम तो गये। वस्तुतः संन्यास को ही ठीक-ठीक आत्मघात कहना चाहिए; क्योंकि और कोई आदमी जो आत्महत्या कर लेता है, उसका शरीर तो मिटा देता है लेकिन मन तो मिटता नहीं, अहंकार तो मिटता नहीं। इधर शरीर मिटा नहीं कि नया जन्म हुआ नहीं। फिर गर्भ, फिर दौड़ शुरू। वही फिर शुरू हो जायेगा जो चल रहा था। संन्यास ही वास्तविक आत्मघात है, क्योंकि जो ठीक-ठीक संन्यस्त हो जाये, अहंकार विसर्जित हो जाये, तो फिर दुबारा लौटकर आने की जरूरत दिल का देवालय साफ करो 253
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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