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________________ पहला प्रश्न: आप अकर्ता होने को कहते हैं। लेकिन कोई भी निर्णय या चुनाव करते समय कर्ता फिर-फिर खड़ा हो जाता है। अकर्ता कैसे होवें? कैसे बनें उसकी बांसुरी? कैसे हटायें 'मैं-भाव' को? कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका ही है? TT | हली बात, तुम अकर्ता न बन सकोगे। 1 | तुम्हारे कुछ किये अकर्ता न सधेगा। | तुम जो भी करोगे, कर्ता ही निर्मित होगा उससे। करोगे तो कर्ता निर्मित होगा। तुम मिटने की भी कोशिश करोगे, तो भी कर्ता ही निर्मित होगा। विनम्रता भी अहंकार का ही आभूषण बन जाती है। मैं नहीं हूं, ऐसी घोषणा भी मैं से ही उठ आयेगी। ऐसे तो तुम धोखे में पड़ोगे। ऐसे तो बड़ा जाल उलझ जायेगा। सुलझा न सकोगे। . अकर्ता कोई बन नहीं सकता। अकर्ता बनने की बात नहीं है। क्योंकि जो भी बनेगा, वह तो कर्ता ही रहेगा। कृत्य मात्र कर्ता को ही निर्माण करता है। अब तुम जो भी प्रश्न पूछ रहे हो, वह मौलिक रूप से गलत है। प्रश्न की दिशा ही गलत है। मैं क्या करूं? मैं कैसे अकर्ता होऊं? कैसे बनूं उसकी बांसुरी? कैसे हटाऊं 'मैं-भाव' को? कैसे पहचानूं कि यह निर्णय उसका है? इस सब के पीछे तुम मौजूद हो। यह कौन है जो उसकी बांसुरी बनना चाहता है? यह कौन है जो कहता है, कैसे 'मैं-भाव' को छोडूं? यही तो कर्ता है। . फिर क्या करें? करने को तो कुछ बचता नहीं। फिर क्या करें? बस कर्ता कैसे निर्मित होता है इस बात को समझ लेने से, धीरे-धीरे कर्ता अपने-आप तिरोहित हो जाता है। कुछ करना नहीं पड़ता। तुम पूछते हो, कैसे बनें उसकी बांसुरी? बांसुरी तुम हो। यह बनने का प्रश्न ही नहीं। यह तुमने मान रखा है कि तुम बांसुरी नहीं हो। बांसुरी तो तुम अभी भी हो। इस क्षण भी वही सुन रहा है तुम्हारे भीतर, वही बोल रहा है। एक क्षण को भी इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है। जब तुमने पाप भी किया है तो उसी ने किया है। और जब तुमने पुण्य भी किया है तो उसी ने किया है। जब तुम चोर थे तब भी वही था। और जब तुम साधु बने तब भी वही था। एक क्षण को भी अन्यथा होने का उपाय नहीं है। तुम उससे भिन्न हो कैसे सकोगे? तुम पूछते हो, हम उसकी बांसुरी कैसे बनें? इसमें भ्रांति भीतर पड़ी ही है। भ्रांति यह पड़ी है कि हम उससे अलग हैं, अब हमें उसकी बांसुरी बनना है। बांसुरी तुम हो, इतना ही जानना है। तुम पूछते हो कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका है? सब निर्णय उसके हैं। पहचान की बात ही नासमझी की है। ऐसा कोई निर्णय ही नहीं है जो उसका न हो। ऐसा हो ही कैसे सकता है कि उसका निर्णय न हो
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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