SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से बहने दोगे। तुम कहोगे, जो तेरी मर्जी। तू अंत को जानता, तू प्रथम को जानता। हमें न प्रथम का पता, न अंत का पता। हमें तो कहानी की बीच की थोड़ी-सी झलक है। इस थोड़ी-सी झलक के आधार पर हम पूरा निर्णय नहीं कर सकते। तू पूरा निर्णय जानता है। तू जानता है कहां से आना हो रहा है चैतन्य का, कहां जाना हो रहा है। तुझे पूरे का पता है। उस पूरे के संदर्भ में तू जो करवाये, शुभ है; फिर चाहे इस क्षण में अशुभ ही क्यों न मालूम पड़ता हो। _ऐसी प्रतीति जब गहन हो जाती और व्यक्ति समर्पित हो जाता समष्टि को, तब जीवन में परम क्रांति का क्षण आता। इस आमूल क्रांति को ही धर्म कहते हैं। धर्म शास्त्रों में नहीं है, स्वयं के संगीत के साथ बहने में है। धर्म का अर्थ ही स्वभाव है। और इस स्वभाव को पाने की व्यवस्था स्वतंत्रता है। अपने को बांधो मत, खोलो। पिंजरों के सींखचों से अपने को जकड़ो मत। उड़ो। खुला आकाश तुम्हारा है। तुम आकाश हो। इससे कम पर राजी मत हो जाना। जब तक पूरे आकाश पर तुम्हारे पंख न फैल जायें तब तक बढ़ते ही जाना है, तब तक चलते ही जाना है। बुद्ध ने कहा है अपने भिक्षुओं कोः 'चरैवेति, चरैवेति।' चलते जाओ, चलते जाओ, जब तक परमपद न आ जाये। जब तक आखिरी मंजिल न आ जाये तब तक कोई पड़ाव नहीं। रुक लेना, रात भर विश्राम कर लेना, लेकिन ध्यान रखना, सुबह चल पड़ना। और किसी पड़ाव से इतना मोह मत बना लेना कि उसी को मंजिल मानने लगो। ऐसे हर पड़ाव से स्वतंत्र होते, हर नियम से मुक्त होते, एक दिन परम मुक्ति फलित होती है। स्वतंत्रता प्रथम चीज है और स्वतंत्रता अंतिम। स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्यात् लभते परम्। स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत् स्वातंत्र्यात् परमं पदम्।। आज इतना ही। * * 240 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy