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________________ लग गई उनको कि दस हजार भूले जा रही है, क्या मामला है? आदमी शुभ की भी घोषणा करके अहंकार को भर लेता है, अशुभ की घोषणा करके भी अहंकार को भर लेता है। शुभ के भी जिद्दी हैं और अशुभ के भी जिद्दी हैं। फिर इन दोनों को छोड़कर भी बैठ गये उदासीन लोग हैं जिनके चेहरे पर मक्खियां उड़ने लगती हैं। उदासी आ गई। वे कहते हैं कि अब कुछ रस नहीं है। अच्छे-बुरे में कुछ रस नहीं है। बैठ गये, तटस्थ हो गये।। लेकिन अष्टावक्र कहते हैं, इन तीनों के पार एक वास्तविक चित्तदशा है। उदासीनता तो अच्छी बात नहीं। अस्तित्व तो उत्सव है। इस उत्सव में उदासीनता तो प्रभु का अपमान है। यहां फूल खिले हैं, सूरज उगा है, पक्षी गीत गा रहे हैं, नाचो। यहां उदासीन होना तो प्रभु ने यह जो जगत दिया, उस प्रभु का अपमान है। इस अस्तित्व ने जो इतना अवसर दिया इसमें उदासीन न होकर बैठ गये? यह तो तौहीन है। यह बात ठीक नहीं। उत्सव चाहिए जीवन में, उदासीनता नहीं। और उत्सव ऐसा चाहिए कि जिसमें कोई आग्रह न हो। क्षण-क्षण जीयो निराग्रह से। न तो तय करो कि शुभ करेंगे, न तय करो कि अशुभ करेंगे; जो परमात्मा करवा ले। जो उसकी मर्जी। उसकी मर्जी पर छोड़ दो। जो भी करेंगे, बोधपूर्वक करेंगे। और जो वह करवा लेगा उसमें राजी रहेंगे। ऐसी परम राजीपन की दशा चौथी दशा है। 'धीरपुरुष, जब जो कुछ शुभ अथवा अशुभ करने को आ पड़ता है उसे सहजता के साथ करता . खयाल रखना, शुभ या अशुभ। अष्टावक्र का मुकाबला नहीं। अष्टावक्र की क्रांति का कोई मुकाबला नहीं। अष्टावक्र अतुलनीय हैं। 'धीरपुरुष, जब जो कुछ शुभ अथवा अशुभ करने को आ पड़ता है उसे सहजता के साथ करता है, क्योंकि उसका व्यवहार बालवत है।' शुभ आ जाये, शुभ करवा ले प्रभु तो शुभ; अशुभ करवा ले तो अशुभ। वह चुनाव नहीं करता। __यही तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि अगर प्रभु की मर्जी है कि युद्ध हो तो तू लड़। अब तू कौन है बीच में कहनेवाला कि यह अशुभ है, हिंसा हो जायेगी, पाप हो जायेगा? तू कौन बीच में आनेवाला? तू निमित्त मात्र है। अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, ये जो सामने खड़े लोग हैं, मैं देखता हूं, ये मारे जा चुके हैं। तू तो निमित्त मात्र है। इनकी मौत तो घट चुकी। मैं जरा आगे की देख रहा हूं, इनकी मौत हो चुकी है। घड़ी-दो घड़ी की बात है। ये मारे जा चुके हैं। तू निमित्त मात्र है। तेरे कंधे पर रखकर गांडीव चला कि किसी और के कंधे पर रखकर चला, कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये मारे जा चुके। तू यह मत सोच कि तू इन्हें मारनेवाला है। तू कर्ता मत बन। और तू कौन है बीच में सोचे कि क्या शुभ, क्या अशुभ? यह भी जरा समझने की बात है। क्योंकि तुम कभी शुभ करो और हो जाता है अशुभ। और तुम कभी अशुभ करो और हो जाता है शुभ। चीन में ऐसा हुआ कि एक आदमी के सिर में दर्द था-कोई चार हजार साल पुरानी कथा है बडा दर्द था और जीवन भर से दर्द था। और एक दश्मन ने छिपकर उसे तीर मार दिया। उसके पैर में तीर लगा और दर्द चला गया। बड़ी हैरानी हुई। तीर तो निकल गया, वह आदमी बच भी गया, लेकिन दर्द चला गया। इसी आदमी के अनुभव से चीन में एक शास्त्र का जन्म हुआ: अकुपंक्चर। स्वातंत्र्यात् परमं पदम् 235
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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