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________________ निकलूंगा और दीवाल से निकलने की कोशिश न करूंगा। ऐसी कोई कसम थोड़े ही खाता है! दरवाजे से चुपचाप निकल जाता है। अंधा आदमी जब उठता है तो तय करता है कि दरवाजे से निकलना है। दरवाजे से ही निकलना है। पूछता है, दरवाजा कहां है? पूछकर भी फिर अपनी लकड़ी से टटोलता है कि दरवाजा कहां है। क्योंकि डर है, अंधा है, कहीं दीवाल से न निकलने की कोशिश कर ले; कहीं दीवाल से न टकरा जाये। अंधा आदमी आग्रहपूर्वक दरवाजे से निकलने का प्रयास करता है। आंखवाला आदमी चुपचाप निकल जाता है। सोचता भी नहीं कि दरवाजा कहां है। जिसको दिखाई पड़ता है वह सोचेगा क्यों? सिर्फ अंधे सोचते हैं। आंखवाले सोचते ही नहीं। सोचने की जरूरत क्या है ? सोचना तो अंधों के हाथ की लकड़ी है; उससे टटोलते हैं। कोई बैठा है और कहता है, ईश्वर के संबंध में सोच रहे हैं। क्या खाक सोचोगे! ईश्वर कोई सोचने की बात है? ईश्वर तो देखने की बात है। इसलिए तो हम ईश्वर की तरफ जो यात्रा है उसको दर्शन कहते हैं, विचार नहीं कहते। पश्चिम में जो शब्द है फिलॉसफी, वह ठीक-ठीक शब्द नहीं है दर्शन के लिए। भारतीय दर्शन को भारतीय फिलॉसफी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि फिलॉसफी का अर्थ होता है सोच-विचार, चिंतन-मनन। दर्शन का अर्थ होता है, देखना। ये शब्द बड़े अलग हैं। दर्शन का अर्थ होता है, आंख का खुल जाना, दृष्टि का मिल जाना, द्रष्टा का जाग जाना। ___ हां, जब तक दर्शन नहीं हुआ तब तक सोच-विचार है। जब तक सोच-विचार है तब तक शंकायें-कुशंकायें हैं। जब तक शंकायें-कुशंकायें हैं तब तक तुम एक भीड़ हो, बहुचित्तवान हो, तुम एक नहीं, संयुक्त नहीं। ....यम-नियमादि योग को आग्रह के साथ नहीं ग्रहण करता है।' ग्रहण करता ही नहीं; आग्रह का प्रश्न ही नहीं उठता है। '...लेकिन वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।' वह जीवन की सब छोटी-छोटी क्रियाओं में सरलता से जीता है। देखता हुआ देखता है, सुनता हुआ सुनता है। . देखना, झेन फकीर जो कहते हैं...। बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? तो उसने कहा, जब भूख लगती है तब भोजन करता और जब नींद आती है तब सो जाता। तो उस आदमी ने कहा, यह कोई साधना हुई? यह तो हम भी करते हैं, यह तो सभी करते हैं, नींद आयी तब सो गये, भूख लगी तब खा लिया। बोकोजू ने कहा कि नहीं, कभी-कभी कोई बिरला करता है। तुम भोजन करते हो और हजार काम साथ में और भी करते हो। भोजन कर रहे हो और दुकान भी चला रहे हो खोपड़ी में। भोजन कर रहे और बाजार में भी हो। भोजन कर रहे और किसी को रिश्वत भी दे रहे हो। भोजन कर रहे और हजार विचार कर रहे हो। भोजन तो डाले जा रहे हो यंत्रवत, और भीतर मन हजार दुनियाओं में दौड़ रहा है, हजार योजनायें बना रहा है। जब तुम सोते हो तब सोते भी कहां? सपने देखते हो। न मालूम कितनी भाग-दौड़, कितनी आपाधापी नींद में भी चलती रहती है। नींद में भी तुम अपने घर नहीं आते। दिन में भागे रहते, रात में स्वातंत्र्यात् परमं पदम् 229 229 .
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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