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________________ इतनी भी हिम्मत नहीं कि हम सीधी-सीधी बात मान लें, भई, हमें पता नहीं। जहां तक दिखाई पड़ता है वहां तक तो यही मालूम पड़ता है कि आदमी मरा कि खतम हुआ । और हम भी मरेंगे तो खतम हो जायेंगे। इतनी भी हिम्मत नहीं है हममें स्वीकार करने की । हम बचना चाहते हैं । आत्मा की अमरता हमारे लिए शरण बन जाती है। हम कहते हैं, नहीं, शरीर मरेगा, मन मरेगा, मैं तो रहूंगा। हम किसी तरह अपने को बचा लेते हैं। लेकिन यह कोई निःशंक अवस्था नहीं है। इसलिए इसका जीवन में कोई परिणाम नहीं होता । तो पहली तो बात है, शंकारहित — निःशंको। यह तुम्हारा अनुभव होना चाहिए, उपनिषद की सिखावन से काम न चलेगा । दोहरायें लाख कृष्ण, और दोहरायें लाख महावीर, इससे कुछ काम न चलेगा। बुद्ध कुछ भी कहें, इससे क्या होगा ? जब तक तुम्हारे भीतर का बुद्ध जागकर गवाही न दे। जब तक तुम न कह सको कि हां, ऐसा मेरा भी अनुभव है। जब तक तुम न कह सको कि ऐसा मैं भी कहता हूं अपने अनुभव के आधार पर, अपनी प्रतीति के, अपने साक्षात के आधार पर कि मेरे भीतर जो है, वह शाश्वत है | लेकिन तब तुम यह भी पाओगे कि जो शाश्वत है वह तुम नहीं हो। तुम तो अहंकार हो । तुम तो मरोगे। तुम तो जाओगे। तुम बचनेवाले नहीं हो। तुम्हारा शरीर जायेगा, तुम्हारा मन जायेगा। इन दोनों पार कोई तुम्हारे भीतर छिपा है जिससे तुम्हारी अभी तक पहचान भी नहीं हुई। वही बचेगा। और वह तुमसे बिलकुल अन्यथा है, तुमसे बिलकुल भिन्न है। तुम्हें उसकी झलक भी नहीं मिली है। तुमने सपने में भी उसका स्वप्न नहीं देखा है। शंकारहित कैसे होओगे? कैसे यह निःशंक अवस्था होगी ? कठिन तो नहीं होनी चाहिए यह बात, क्योंकि जो भीतर ही है उसको जानना अगर इतना कठिन है तो फिर और क्या जानना सरल होगा ? कठिन तो नहीं होनी चाहिए। तुमने शायद भीतर जाने का उपाय ही नहीं किया। शायद तुम कभी घड़ी भर को बैठते ही नहीं । घड़ी भर को मन की तरंगों को शांत होने नहीं देते। जलाये रहते हो मन में आग, ईंधन डालते रहते हो । दौड़ाये रखते हो मन के चाक को । चलाये रखते हो मन के चाक को । कभी मौका नहीं देते कि चाक रुके और तुम कील को पहचान लो। वह जो कील है, जिस पर चाक घूमता है, वह नहीं घूमती । देखते ? हिंदुस्तान में बड़ा अदभुत नाम है। कहते हैं, चलती का नाम गाड़ी। अब गाड़ी का मतलब होता है, गड़ी हुई। चलती का नाम गाड़ी ? चलती का नाम तो गाड़ी नहीं होना चाहिए। गाड़ी का मतलब गड़ी हुई। गड़ी हुई चीज तो चलती नहीं । चलती हुई चीज तो गाड़ी नहीं हो सकती। लेकिन फिर भी चलती को गाड़ी कहते हैं। कारण ? क्योंकि चाक असली चीज नहीं है गाड़ी में; असली चीज कील है, और कील गड़ी है। चाक चलता है, कील नहीं चलती । चाक हजारों मील चल लेगा, कील जहां की तहां है, जैसी की तैसी । उस कील के कारण गाड़ी को गाड़ी कहते हैं, चाक के कारण नहीं कहते । चाक तो गौण है। असली चीज तो कील है, उस पर ही चाक घूमता है। कील केंद्र है, चाक परिधि है। I तुम्हारे भीतर भी कील है जिस पर जीवन का चाक घूमता है, जीवन-चक्र चलता । जीवन-चक्र बहुत से आरे हैं, वे ही तुम्हारी वासनायें हैं। लेकिन सब के भीतर छिपी हुई एक कील है – अचल, स्वातंत्र्यात् परमं पदम् 227
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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