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________________ स्वीकार करो। इसकी उदघोषणा करो कि मालिक मैं हूं। तुम जरा देखो यह उदघोषणा करके कि मालिक मैं हूं। और इस तरह जीना शुरू करो कि मालिक तुम हो। मन फिर भी खींचेगा पुरानी आदत के वश, लेकिन मन से कह देना कि मालिक मैं हूं। मन से लड़ना भी मत, क्योंकि लड़ने का मतलब है कि तुम मालिक न रहे। एक सिंह को एक गधे ने चुनौती दे दी कि मुझसे निपट ले। सिंह चुपचाप सरक गया। एक लोमड़ी छुपी देखती थी, उसने कहा कि बात क्या है? एक गधे ने चुनौती दी और आप जा रहे हैं? सिंह ने कहा, मामला ऐसा है, गधे की चुनौती स्वीकार करने का मतलब मैं भी गधा। वह तो गधा है ही। उसकी चुनौती से ही जाहिर हो रहा है। किसको चुनौती दे रहा है? पागल हुआ है, मरने फिर रहा है। फिर दूसरी बात भी है कि गधे की चुनौती मानकर उससे लड़ना अपने को नीचे गिराना है। गधे की चुनौती को मानने का मतलब ही यह होता है कि मैं भी उसी तल का हूं। जीत तो जाऊंगा निश्चित ही, इसमें कोई मामला ही नहीं है। जीतने में कोई अड़चन नहीं है। एक झपट्टे में इसका सफाया हो जायेगा। मैं जीत जाऊंगा तो भी प्रशंसा थोड़े ही होगी कुछ! लोग यही कहेंगे क्या जीते, गधे से जीते! और कहीं भूलचूक यह गधा जीत गया तो सदा-सदा के लिए बदनामी हो जायेगी, इसलिए भागा जा रहा हूं। इसलिए चुपचाप सरका जा रहा हूं कि इस...यह चुनौती स्वीकार करने जैसी नहीं है। मैं सिंह हूं यह स्मरण रखना जरूरी है। मन खींचेगा। मन चुनौतियां देगा। तुमने अगर अपने मालिक होने की घोषणा कर दी, तुम कहना कि ठीक है, तू चुनौती दिये जा, हम स्वीकार नहीं करते। न हम लड़ेंगे तुझसे, न हम तेरी मानेंगे। तू चिल्लाता रह। कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी गुजर जाता है। तू चिल्लाता रह। और तुम चकित होओगे, थोड़े दिन अगर तुम मन को चिल्लाता छोड़ दो, धीरे-धीरे उसका कंठ सूख जाता। धीरे-धीरे वह चिल्लाना बंद कर देता। और जिस दिन मन चिल्लाना बंद कर देता है उस दिन...उस दिन ही अंतर्गुफा में प्रवेश हुआ। बाहर की कोई गुफा काम न आयेगी। बाहर शरण लेने से कुछ अर्थ नहीं होगा। . महावीर ने कहा है, अशरण हो जाओ। बाहर शरण लेना ही मत। अशरण हुए तो ही आत्मशरण मिलती है। ___ 'वासनारहित पुरुषसिंह को देखकर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं, या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।' ___ 'शंकारहित और युक्त मनवाला पुरुष यम-नियमादि मुक्तिकारी योग को आग्रह के साथ नहीं ग्रहण करता है, लेकिन वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ । सुखपूर्वक रहता है।' इस सूत्र को खूब ध्यान करना। न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशंको युक्तमानसः। पश्यन्श्रृण्वन्स्पृशन्जिघ्रनश्नन्नास्ते यथासुखम्।। जिसको अपने सिंह होने में शंका न रही, जिसको अपने आत्मा होने में शंका न रही, जिसने जरा-सा इस भीतर के अंतर्जगत का स्वाद लिया, जो थोड़ा-सा भी जागा-विवेक में, ध्यान में, स्वातंत्र्यात् परमं पदम् 225
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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