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________________ छाया भी लेकिन बाहर है, यह विषय का जो ज्वर है, यह तो तुम्हारे भीतर है। इससे तुम भागोगे कहां? तुम स्त्री से भाग सकते हो, पुरुष से भाग सकते हो। लेकिन कामवासना से कैसे भागोगे? कामवासना तो तुम्हारे अंतस्तल में बैठी है। हां, यह हो सकता है, स्त्री से भाग जाओ तो कामवासना को उठने का अवसर न मिले; सोयी पड़ी रहे, बीजरूप में पड़ी रहे। जब भी कभी स्त्री से मिलन होगा तभी फिर जाग जायेगी। इसीलिए तो तुम्हारे साधु-संन्यासी स्त्रियों से इतने घबड़ाते हैं। घबड़ाने का कारण है। अभी भी बीज दग्ध नहीं हुआ। धन से हट जाओ तो वासना पड़ी रह जायेगी। उपकरण चाहिए वासना के प्रगट होने के लिए। खूटी चाहिए जहां वासना टंग सके। खूटी तोड़ दी तो वासना को टंगने को जगह न रही। लेकिन जब भी कहीं खूटी मिलेगी वहीं घबड़ाहट आ जायेगी; वहीं मन डांवाडोल होने लगेगा। इसलिए तुम्हारे साधु-संत रुपये-पैसे से डरते हैं। अब यह मूढ़ता देखते हो? रुपये-पैसे से डरना! रुपये-पैसे में कुछ भी नहीं है यह भी कहते, और डरते भी। अगर कुछ भी नहीं तो डर कैसा? एक तरफ कहते हैं, कि स्त्री में क्या रखा! और डरते भी। अगर कुछ भी नहीं रखा है तो डर कैसा? डर तो बताता है कि कुछ होगा। डर तो बताता है, भीतर प्रलोभन है, भीतर वासना है। यह जो विषयरूपी शत्रु है, यह तुम्हारे बाहर होता तो बड़े उपाय थे। भाग जाते दूर। छोड़ जाते इसे यहीं। यह तुम्हारे बाहर नहीं, पहली बात। यह तुम्हारे भीतर है। अपने से कैसे भागोगे? अपने को बदलो; भागने से कुछ भी न होगा। जागो; भागने से कुछ भी न होगा। इसलिए मैं कहता हूं भागो मत, जागो। जागने से मिटेगा। भीतर की ज्योति जब जलेगी प्रगाढ़ता से तो तुम अचानक पाओगे, वह जो विषयरूपी बाघ था, बाघ था ही नहीं। भय थे। व्यर्थ के भय थे। कल्पना के जाल थे। कहीं कुछ था ही नहीं। सच में जो ज्ञान को उपलब्ध होता है वह ऐसा नहीं कहता, स्त्री में कुछ नहीं; वह ऐसा कहता है, वासना में कुछ नहीं। फर्क को खयाल में रखना। इसको कसौटी समझ लेना। जब कोई कहे, स्त्री में कुछ नहीं, तो समझ लेना अभी स्त्री में कुछ है। जब कोई कहे, पुरुष में क्या रखा है? तो समझ लेना, पुरुष में कुछ रखा है। जब कोई कहे, धन में क्या रखा है? तो समझ लेना कि धन में अभी भी कुछ बचा है। यह समझा रहा है अपने को। लेकिन जब कोई कहे, वासना में क्या रखा है? तब मुक्त हुआ। वासना भीतर है, स्त्री बाहर है। पुरुष बाहर है, कामना भीतर है। जब कोई कहे, कामना में क्या रखा है? देख लिया. कछ भी न पाया। दीया जलाकर देख लिया। खोज लिया कोना-कोनाम एक-एक कातर में, कोने में रोशनी ले जाकर देख ली, कुछ भी न पाया। तब...। मैंने सुना है, एक गुफा एक पहाड़ की कंदरा में छिपी थी—सदियों से, सदियों-सदियों से; अनंतकाल से। गुफाओं की आदत छिपा होना होता है। अंधेरे में ही रही थी। कुछ ऐसी आड़ में छिपी थी पत्थरों और चट्टानों के, कि सूरज की एक किरण भी कभी भीतर प्रवेश न कर पाई थी। सूरज रोज द्वार पर दस्तक देता लेकिन गुफा सुनती न। सूरज को भी दया आने लगी कि बेचारी गुफा जन्मों-जन्मों से बस अंधेरे में रही है। इसे रोशनी का कुछ पता ही नहीं। एक दिन सूरज ने जोर से आवाज दी। ऐसी सूरज की आदत नहीं कि जोर से आवाज दे। लेकिन बहुत दया आ गई होगी। जन्मों-जन्मों से गुफा अंधेरे में पड़ी है। तो सूरज ने कहा, 218 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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