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________________ में मिल जायेंगे। उनकी पूजा करनेवालों की भी लाखों की भीड़ मिल जायेगी। पूजा करनेवालों के पास भी कोई प्रतिभा नहीं है और जिनकी पूजा की जा रही है उनकी भी कोई क्षमता नहीं है। ___ हम सबके भीतर यह संभावना है इसलिए अष्टावक्र सावधान करते हैं। यह सूत्र तुम्हें सावधान बनाने को है। मन बहुत बार करता है कि जहां जीत न होती हो वहां से हट जाना अच्छा। तुमने देखा, लोग ताश खेलते हैं; अगर हारने की नौबत आ जाये तो बाजी उलट देते हैं। क्रोध में आ जाते, तख्ता उलट देते हैं। खेलना ही नहीं है, धोखा हो गया। कुछ भी अनर्गल बोलने लगते हैं। ताश के पत्ते खेल रहे थे, कोई बहुत बड़ा काम भी न कर रहे थे, लेकिन वहां भी हारने की सामर्थ्य नहीं है। __ और जो हारने को तैयार नहीं है वह कभी जीत भी न सकेगा। हार से गुजरने की जिसकी तैयारी है वही जीत के सूत्र सीख पाता है। हार के रास्ते पर ही जीत के सूत्र बिखरे पड़े हैं। ये जो हार के कांटे हैं इन्हीं के बीच विजय के फूल भी खिले हैं। तुम गुलाब के कांटों से भाग गये तो तुम गुलाब के फूलों से भी वंचित रह जाओगे। एक बात पक्की है कि कांटों से भाग गये तो कांटों से जो पीड़ा होती थी वह तुम्हारे जीवन में न होगी, लेकिन फूलों से जो सुख की वर्षा होती थी उससे भी वंचित रह जाओगे। __चूंकि इस जगत में अधिक लोग दुखी हैं इसलिए जब किसी आदमी को देखते हैं दुखी नहीं है, इसके जीवन में कांटे नहीं चुभे, तो पूजा करने लगते हैं। लेकिन यह भी कोई उपलब्धि हुई ? कांटों का न होना कोई उपलब्धि है? फूल खिलते तो उपलब्धि थी। कांटों का न होना तो केवल नकारात्मक है, विधायक कहां है? परमात्मा की उपस्थिति नहीं है यहां। संसार अनुपस्थित हो गया है लेकिन परमात्मा की उपस्थिति नहीं है। परमात्मा की उपस्थिति तो उसी को उपलब्ध होती है जो संसार की सीढ़ियां चढ़ता है। वे सीढ़ियां जटिल हैं, अंगारों से पटी हैं, जलाती हैं, लेकिन उसी जलने में से तो निखार आता है। आग से गुजरकर ही तो सोना कुंदन बनता है। आग से भाग जाये जो सोना, उसको तुम संन्यासी कहोगे? भगोड़ा संन्यासी हो ही नहीं सकता। पलायनवादी संन्यासी हो ही नहीं सकता। संन्यासी तो वही है जो संसार में हो और संसार का न हो। यही अष्टावक्र की मूल धारणा है, यही मेरी मूल धारणा है। मुझसे लोग आकर कहते हैं, आप संन्यास दे देते हैं और लोगों को संसार छोड़ने को नहीं कहते? मैं कहता हं. संसारी थे तब. संन्यास नहीं लिया था तब अगर संसार छोड़ भी देते तो क्षमा योग्य थे। अब तो छोड़ने का उपाय न रहा। संन्यास का अर्थ ही है भगोड़ेपन का त्याग। अब तो जूझेंगे। अब तो गहरी डुबकी लगायेंगे संसार में। क्योंकि यह संसार के सागर में डुबकी लगाकर ही मिलते हैं हीरे-मोती। जो इस सागर से भागा डरकर कि कहीं डूब न जायें, वह रेत में पड़ी हुई शंखियां और सीप बीन ले भला, हीरे-मोती नहीं पायेगा। उतने सस्ते में मिलते ही नहीं हीरे-मोती। मूल्य तो चुकाओगे न! मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा। यह संसार परमात्मा को पाने के लिए चुकाया गया मूल्य है। इसकी हर समस्या समाधि के लिए चुकाई गई व्यवस्था है। समस्या से गुजरकर समाधान उपलब्ध होगा। समस्या तो केवल अवसर है, परीक्षा है, कसौटी है। कोई विद्यार्थी परीक्षा से भाग जाये तो तुम उसकी पूजा तो नहीं करते। यह जीवन तो परीक्षा है। इससे जो भाग गये हैं, छोड़ो, उन भगोड़ों का आदर छोड़ो। क्योंकि उस 216 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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