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________________ पांचवां प्रश्नः कल आपने कहा, 'निर्बल के बल राम। हारे को हरिनाम।' परंतु कुछ दिन पूर्व आपने कहा था कि परमात्मा के सामने भिखारी की तरह नहीं, वरन सम्राट की तरह ही जाया जा सकता है। कृपया विरोधाभास | वि रोधाभास तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, को स्पष्ट करें। क्योंकि तुम्हारे पास अविरोध को देखने की समझ नहीं है। तुम्हारे पास वैसी आंख नहीं है जो अविरोध को देख ले। तो तत्क्षण हर चीज विरोधाभासी हो जाती है। तुमने देखी नहीं कि चीज विरोधाभासी हुई नहीं। समझने की कोशिश करोः निर्बल के बल राम। लेकिन निर्बल का मतलब भिखारी नहीं होता। और निर्बल के बल राम-जिस निर्बलता में राम मिल जाते हों वह निर्बलता भिखमंगापन नहीं हो सकती। वह निर्बलता तो साम्राज्य का द्वार हई। निर्बल के बल राम का अर्थ है, जिसने अपने अहंकार के बल को छोड़ दिया। जिसने कहा, अब मेरा कोई बल नहीं।। . इससे कुछ बल थोड़े ही मिट जाता है। इससे ही पहली दफा बल पैदा होता है। __तुम्हारा अहंकार ही तो तुम्हें मारे डाल रहा है। वही तो तुम्हारी छाती पर बंधा हुआ पत्थर है, गर्दन में बंधी फांसी है। बल कहां है तुम्हारे अहंकार में? सिर्फ बल का दंभ है। बल कहां है? क्या कर लोगे तुम्हारे अहंकार से? सिकंदर और नेपोलियन और चंगीज और तैमूर क्या कर पाते हैं ? सारा बल धरा रह जाता है। सारा बल पड़ा रह जाता है। मौत का झोंका आता है और सब हवा निकल जाती है। गुब्बारा फूट जाता है। जितना बड़ा अहंकार उतने ही जल्दी गुब्बारा फूट जाता है। देखा, छोटे बच्चे फुग्गे को हवा भरते जाते, भरते जाते। गुब्बारा बड़ा होता जाता। जैसे-जैसे गुब्बारा बड़ा होता है वैसे-वैसे फूटने के करीब आ रहा है। जब गुब्बारा पूरा बड़ा हो जाता है तो फूट जाता है। नेपोलियन और सिकंदर फूले हुए गुब्बारे हैं। तुम्हारा अहंकार है क्या? बल क्या है तुम्हारे अहंकार में? तुम्हारे अहंकार से होता क्या है? कुछ भी तो नहीं होता। निर्बल के बल राम का अर्थ है, जिस व्यक्ति ने अपनी अस्मिता का दंभ छोड़ा, अहंकार का भाव छोड़ा। इस तरफ से निर्बल हुआ। क्योंकि अब तक जिसको बल माना था वह बल गया। लेकिन वस्तुतः थोड़े ही निर्बल हुआ। यही तो अर्थ है निर्बल के बल राम। जैसे ही अपना बल गया कि राम का बल पैदा हुआ। राम का बल तुम्हारे भीतर छिपा है, तुम्हारे प्राणों में दबा है। इधर ऊपर से तुमने अहंकार का गुब्बारा छोड़ा कि बस आया। रवींद्रनाथ ने एक कविता लिखी है, प्यारी है। लिखा है अपनी कविता में कि एक रात बजरे पर था। पूर्णिमा की रात, पूरा चांद आकाश में। बड़ी लुभावनी रात। चांद की बरसती रात। और वे अपनी नाव पर अपने बजरे में अंदर बैठे हैं। कोई किताब पढ रहे । सौंदर्य के संबंध में सौंदर्यशास्त्र की कोई किताब पढ़ रहे हैं। एक छोटी-सी मोमबत्ती जला रखी है, उसका पीला टिमटिमाता प्रकाश-उसी में मन तो मौसम-सा चंचल 201 .
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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