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________________ इस कुबुद्धि की स्थिति को उतारना । इस कुबुद्धि को हटाना । घबड़ाहट लगेगी। क्योंकि कुबुद्धि को हटाओगे तो अबुद्धि मालूम पड़ेगी, मगर अबुद्धि में कुछ भी बुरा नहीं है। अबुद्धि में तो तुम सिर्फ अबोध अवस्था में आ गये, जो कि स्वाभाविक है । अबोध से बोध की तरफ जाना बिलकुल सुगम है, एक ही छलांग में हो सकता है। लेकिन कुबोध से तो बोध की तरफ जाने का कोई उपाय ही नहीं। रास्ता जाता ही नहीं। वहां से कोई मार्ग ही नहीं है। 'दुर्बुद्धि पुरुष शुद्ध अद्वैत आत्मा की भावना करते हैं – कल्पना करते हैं, विचार करते हैं, चिंतन-मनन करते हैं, चर्चा करते हैं— 'लेकिन मोहवश उसे जानते नहीं ।' वह जो मोह है अहंकार का, अपना, मेरे का वह छोड़ने नहीं देता। मोह का अर्थ होता है : ममत्व, मेरा, मैं । वह जो मैं के आसपास परिधि खिंची है, वही मोह । ' मोह के कारण उसे जानते नहीं और जीवन भर सुखरहित रहते हैं । ' दुख को बहुत सहेजकर रखना पड़ा हमें सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया अब सबसे पूछता हूं बताओ तो कौन था वह बदनसीब शख्स जो मेरी जगह जीया ! तुम जीवन के अंत में एक दिन पूछोगे । जीवन के अंत में एक दिन तुम कहोगे। ये पंक्तियां तुम्हारे जीवन का अंतिम सार - निचोड़ हो जायेंगी, अगर चौंके नहीं, समय पर जागे नहीं। दुख को बहुत सहेजकर रखना पड़ा हमें और है ही नहीं तो रखोगे भी क्या सहेजकर ? कुछ उसी को तो रखोगे। दुख ही दुख है, उसी को सहेजकर रखते हो । किसी ने गाली दी थी बीस साल पहले, अभी भी सहेजकर रखे हुए हो। पागलपन की भी कोई सीमा होती ! गाली भी कोई सहेजकर रखने की बात है ? कोई दुख हो गया था, भूलते ही नहीं। घाव को कुरेदते रहते हो ताकि घाव हरा बना रहे। और कुछ है भी नहीं, सहेजकर क्या रखोगे ? कुछ न हो तो आदमी तिजोड़ी में कंकड़-पत्थर ही रख लेता है। कम से कम अहसास तो ह है कि कुछ है । बजता तो रहता । आवाज तो होती रहती । खोलकर देखता है तो भरापन तो मालूम होता । दुख को बहुत सहेजकर रखना पड़ा हमें सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया सुख तो है ही इतना क्षणभंगुर । झलक दिखती है और चला जाता है। कपूर की टिकिया-सा उड़ गया। 178 अब सबसे पूछता हूं बताओ तो कौन था वह बदनसीब शख्स जो मेरी जगह जीया जीवन के अंत में तुम पूछोगे कि वह कौन था जो मेरी जगह जीया ? क्योंकि तुम तो कभी जीये भी नहीं । तुम तो कभी वस्तुतः प्रगट ही न हुए। तुम तो धोखे में रहे। तुम तो जो नहीं थे वह तुम मान लिये और जो तुम थे उसको छिपाकर रखा। अब सबसे पूछता हूं बताओ तो कौन था अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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