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________________ वात्मनो दर्शनं तस्य यदृष्टमवलंबते। ।। धीरास्तं तं न पश्यंति पश्यंत्यात्मानमव्ययम्।। 'उसको आत्मा का दर्शन कहां है, जो दृश्य का अवलंबन करता है? धीरपुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं और अविनाशी आत्मा को देखते हैं।' इस एक सूत्र में पूरब के समस्त दर्शन का सार है। दर्शन शब्द का भी यही अर्थ है। यह सूत्र दर्शन की व्याख्या है। दर्शन का अर्थ सोच-विचार नहीं होता। दर्शन का वैसा अर्थ नहीं है, जैसा फिलासफी का। दर्शन का अर्थ है : उसे देख लेना जो सब देख रहा है। दृश्य को देखना दर्शन नहीं है, द्रष्टा को देख लेना दर्शन है। मनुष्य को हम दो विभागों में बांट सकते हैं। एक तो वे, जो दृश्य में उलझे हैं। कहो उन्हें, अधार्मिक। फिर चाहे वे परमात्मा की मूर्ति सामने रखकर उस मूर्ति में ही क्यों न मोहित हो रहे हों, दृश्य में ही उलझे हैं। चाहे आकाश में परमात्मा की धारणा कर रसलीन हो रहे हों तो भी दृश्य में ही उलझे हैं। परमात्मा भी उनके लिए एक दृश्य मात्र है। __ दूसरा वर्ग है, जो द्रष्टा की खोज करता है। मैं तुम्हें देख रहा हूं, तुम दृश्य हो। जो मेरे भीतर से - तुम्हें देख रहा है, द्रष्टा है। तुम मुझे देख रहे हो, मैं तुम्हारे लिए दृश्य हूं। जो तुम्हारे भीतर छिपा मुझे देख रहा है, आंख की खिड़कियों से, कान की खिड़कियों से जो मुझे सुन रहा है, देख रहा है, वह कौन है ? उसकी तलाश में जो निकल जाता है वही धार्मिक है। परमात्मा को अगर दृश्य की भांति सोचा तो तुम मंदिर-मस्जिद बनाओगे, गुरुद्वारे बनाओगे, पूजा करोगे, प्रार्थना करोगे, लेकिन वास्तविक धर्म से तुम्हारा संबंध न हो पायेगा। वास्तविक धर्म की तो शुरुआत ही तब होती है जब तुम द्रष्टा की खोज में निकल पड़े; तुम पूछने लगे मौलिक प्रश्न कि मैं कौन हूं। यह जाननेवाला कौन है? जानना है जाननेवाले को। देखना है देखनेवाले को। पकड़ना है इस मूल को, इस स्रोत को। इसके पकड़ते ही सब पकड़ में आ जाता है। उपनिषद कहते हैं, जिसने जाननेवाले को जान लिया उसने सब जान लिया। महावीर कहते हैं,
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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