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________________ र्वासनो निरालंबः स्वच्छंदो मुक्तबंधनः । ।। इन छोटी-सी दो पंक्तियों में ज्ञान की परम व्याख्या समाहित है। इन दो पंक्तियों को भी कोई जान ले और जी ले तो सब हो गया। शेष करने को कुछ बचता नहीं । अष्टावक्र के सूत्र ऐसे नहीं हैं कि पूरा शास्त्र समझें तो काम के होंगे। एक सूत्र भी पकड़ लिया तो पर्याप्त है। एक-एक सूत्र अपने में पूरा शास्त्र है। इस छोटे-से लेकिन अपूर्व सूत्र को समझने की कोशिश करें । 'वासनामुक्त, स्वतंत्र, स्वच्छंदचारी और बंधनरहित पुरुष प्रारब्धरूपी हवा से प्रेरित होकर शुष्क पत्ते की भांति व्यवहार करता है । ' लाओत्सु के जीवन में उल्लेख है : कि वर्षों तक खोज में लगा रहकर भी सत्य की कोई झलक न पा सका । सब चेष्टाएं कीं, सब प्रयास, सब उपाय, सब निष्फल गये। थककर हारा- पराजित एक दिन बैठा है— पतझड़ के दिन हैं— वृक्ष के नीचे । अब न कहीं जाना है, न कुछ पाना है। हार पूरी हो गई। आशा भी नहीं बची है। आशा का कोई तंतुजाल नहीं है जिसके सहारे भविष्य को फैलाया जा सके। अतीत व्यर्थ हुआ, भविष्य भी व्यर्थ हो गया है, यही क्षण बस काफी है। इसके पार वासना के कोई पंख नहीं कि उड़े। संसार तो व्यर्थ हुआ ही, मोक्ष, सत्य, परमात्मा भी व्यर्थ हो गये हैं। - ऐसा बैठा है चुपचाप। कुछ करने को नहीं है। कुछ करने जैसा नहीं है। और तभी एक पत्ता सूखा वृक्ष से गिरा। देखता रहा गिरते पत्ते को — धीरे-धीरे, हवा पर डोलता वृक्ष का पत्ता नीचे गिर गया। हवा का आया अंधड़, फिर उठ गया पत्ता ऊपर, फिर गिरा। पूरब गई हवा तो पूरब गया, पश्चिम गई तो पश्चिम गया। और कहते हैं, वहीं उस सूखे पत्ते को देखकर लाओत्सु समाधि को उपलब्ध हुआ। सूखे पत्ते के व्यवहार में ज्ञान की किरण मिल गई । लाओत्सु ने कहा, बस ऐसा ही मैं भी हो रहूं। जहां ले जायें हवाएं, चला जाऊं। जो करवाये प्रकृति, कर लूं। अपनी मर्जी न रखूं। अपनी आकांक्षा न थोपूं। मेरी निजी कोई आकांक्षा ही न हो। यह जो विराट का खेल चलता, इस विराट के खेल में मैं एक तरंग मात्र
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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