SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मैं तुमसे इतना ही कहना चाहता हूं : पर-गमन पतन है। स्त्री-पुरुष का कोई सवाल नहीं है। अपने से हटना पतन है। स्व से च्युत होना पतन है। स्व में लीन होना, स्वात्माराम होना, स्व में ऐसे तल्लीन होना कि स्व ही सब संसार हो गया तम्हारा: स्व के बाहर कछ भी नहीं। वही तम्हारा संगीत. वही तुम्हारा सुख। स्व तुम्हारा सर्वस्व हो गया, फिर कोई पतन नहीं है। - लेकिन लोग हिसाब-किताब में पड़े हैं। तुम धन के पागल हो, कोई महात्मा कहता है कि धन पाप है। तुम्हें जंचता है। तुम्हारी और महात्मा की भाषा एक है। यद्यपि विपरीत बात कहता लगता है, लेकिन तुम्हें भी जंचती है बात कि पाप है। जानते तो तुम भी हो कि धन इकट्ठा ही पाप से होगा। चूसोगे तो ही इकट्ठा होगा। इकट्ठा कैसे होगा? और धन चिंता लाता है यह भी तुम्हें पता है। और धन की दौड़ में तुम न मालूम कितने अमानवीय हो जाते हो यह भी तुम्हें पता है। और धन पाकर भी कुछ मिलता नहीं यह भी तुम्हें पता है। तो जब कोई महात्मा कहता है धन व्यर्थ, धन में कुछ सार नहीं; तुम्हें भी लगता है कि बड़ी ठीक बात कह रहा है। तब महात्मा समझाता है कि अब दान कर दो। दान महात्मा को कर दो। धन में कुछ सार नहीं है, धन असार है। और जब तुम महात्मा को दान कर देते हो तो महात्मा कहता है, तुम दानवीर हो, पुण्यात्मा हो-उसी धन के कारण, जो असार है। और जब तुम दुबारा आओगे तो तुम्हें आगे बैठने का मौका होगा। तुम्हें विशेष मौका होगा। ___ मैं एक महात्मा को सुनने गया-बचपन की बात है तो वे ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हैं और बीच में एक सेठ आ गये, सेठ कालूराम, तो ब्रह्मज्ञान छोड़ दिया ः 'आइये सेठजी।' मैं बड़ा हैरान हुआ कि ये ब्रह्मज्ञान में सेठजी कैसे आ गये? तो जैसी मेरी आदत थी, मैं बीच में खड़ा हो गया। मैंने कहा, अब ब्रह्मज्ञान छोड़ें। पहले यह सेठजी का क्या अध्यात्म है? सेठ शब्द का अध्यात्म पहले समझा दें। उन्होंने कहा, 'मतलब?' मैंने कहा, 'मतलब यह कि आप ब्रह्मज्ञान में डूबे थे, सेठजी आये कि नहीं आये, कि अमीर आया कि गरीब आया, यह हिसाब आपने क्यों रखा? इतने लोग आकर बैठे, किसी को आपने नहीं कहा कि आकर बैठ जाओ। एकदम ब्रह्मज्ञान रुक गया। और ब्रह्मज्ञान में यही आप समझा रहे थे कि धन में क्या रखा है। अरे, मिट्टी है। अरे, सोना मिट्टी है। इन सेठ के पास सिवाय उसी मिट्टी के और कुछ भी नहीं है। और वैसी मिट्टी सभी के पास है। तो इन सेठ में आपने क्या देखा, मुझे साफ-साफ समझा दें, जिसकी वजह से बीच में आप रुके और कहा, आयें सेठजी; और सामने बिठाया।' नाराज हो गये महात्मा बहुत; बड़े क्रोधित हो गये। इतने नाराज हो गये कि आगबबूला हो गये। कहा कि हटाओ इस बच्चे को यहां से। तो मैंने कहा, महाराज, अभी आप समझा रहे थे कि क्रोध पाप है। ____धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि जब भी गांव में कोई महात्मा आयें तो मुझे घर में लोग बंद कर दें: 'तुम जाना ही मत।' हालत ऐसी हो गई कि मेरी नानी, जिनके पास मैं बचपन से रहा, वे तो इतनी परेशान रहने लगीं कि जब मैं बड़ा भी हो गया और युनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी हो गया तब भी जब मैं घर जाऊं और जाने लगूं घर से तो वे कहें, बेटा, किसी महात्मा से झगड़ा-फसाद मत करना। क्योंकि अब तू घर में रहता भी नहीं। अब वहां तू क्या करता है, पता भी नहीं हमें। 152 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy