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________________ आओ हम जंगल की भाषाएं बोलें ज्ञानी अपने स्वभाव की भाषा बोलता है। वही उसका भजन है। वह फिर जंगल का हुआ। वह फिर परमात्मा का हुआ, वह फिर प्रकृति का हुआ। अब अभ्यास गया सब। गये पाखंड, गये मुखौटे, गये समझौते। अब नहीं ओढ़ता ऊपर की बातें। अब तो भीतर को बहने देता। निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः। और जो दुराग्रही हैं, मूढ़ हैं, और जिनके पास कुछ आधार भी नहीं, फिर भी अपनी मान्यताओं को पकड़े रहते हैं अहंकार के कारण। 'आधाररहित और दुराग्रही मूढ़ पुरुष संसार के पोषण करनेवाले हैं।' तुमने कभी खयाल किया, तुम जिन धारणाओं को पकड़े हो, सिवाय अहंकार के और क्या है? तुम्हें पता है? तुमने जाना है? तुमने अनुभव किया है? तुमसे कोई पूछता है, ईश्वर है? और तुम धड़ल्ले से कह देते हो, हां। तुमने कभी जाना? तुम्हारा ईश्वर से कुछ मिलना हुआ? कभी किसी सुबह ईश्वर के हाथ में हाथ डालकर बैठे हो? किन्हीं आंखों में ईश्वर दिखाई पड़ा? कहीं उसकी छाया भी तुम्हारे आसपास से गुजरी? कुछ पता नहीं है। मगर लड़ने-मरने को तैयार हो जाओगे। कोई कहता है, नहीं है। उसको भी कुछ पता नहीं है। सुनी-सुनी बातें मत दोहराओ। गुनो; अनुभव करो। आग्रह मत दोहराओ, निराग्रही बनो। आधाररहित बातें हैं ये। क्योंकि एक ही आधार है जीवन में अनुभव; और कोई आधार नहीं। जो तुमने जाना, बस उतना ही कहो। जो तुमने नहीं जाना, कहो मुझे पता नहीं है। इतनी तो ईमानदारी बरतो। कम से कम इतने बड़े झूठ तो मत बोलो। छोटे-मोटे झूठ बोलो, चलेगा। छोटे-मोटे झूठों से कुछ बड़ा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम बड़े-बड़े झूठ बोल रहे हो। ___ और बड़ा मजा यह है, जो छोटे-छोटे झूठों को इंकार करवा रहे हैं, वे तुम्हें बड़े-बड़े झूठ सिखला रहे हैं। मंदिर का पुजारी है, पंडित है, ज्ञानी है, मुनि है, साधु है, वे कहते हैं, झूठ छोड़ो; और तुमसे कहते हैं, ईश्वर को मानो। तुम्हारा अनुभव नहीं है। तो तुम कैसे मानो? तुमने जाना नहीं है तो तुम कैसे मानो? तुम इतना ही कहो कि जानूंगा तो मानूंगा। पहले कैसे मान लूं? यह नहीं कह रहा हूं मैं, कि तुम कहो कि मैं नहीं मानता हूं। क्योंकि वह भी मानना हो गया। विपरीत मानना हो गया। इतना ही कहो कि मुझे पता नहीं। खुले रहो। द्वार-दरवाजा खुला रखो। 'नहीं' में भी दरवाजा बंद हो जाता है। नास्तिक भी बंद, आस्तिक भी बंद। धार्मिक मैं उसको कहता हूं, जिसका दरवाजा खुला है। जो कहता है, मेरा कोई आग्रह नहीं, ईश्वर होगा। द्वार मैंने खुले रखे हैं, तुम आना। मैं पलक-पांवड़े बिछाये बैठा हूं। तुम नहीं होओगे तो मैं क्या कर सकता हूं? द्वार खुला रहेगा और तुम नहीं आओगे। मैं बाधा न दूंगा। तुम आओगे तो स्वागत करूंगा। तुम हो तो मैं राजी हूं तुम्हारे साथ नाचने को। तुम नहीं हो तो मैं क्या कर सकता हूं? पैदा तो नहीं कर सकता। 'आधाररहित और दुराग्रही मूढ़ पुरुष संसार के पोषण करनेवाले हैं। इस अनर्थ के मूल संसार का मूलोच्छेद ज्ञानियों द्वारा किया गया है।' जानो और जागो। 127
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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