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________________ बात नहीं कह रहा है। अष्टावक्र ने ज्ञानी के लिए बड़ा अनूठा शब्द चुना है : आलस्य शिरोमणि। ज्ञानी को अष्टावक्र कहते हैं आलस्य शिरोमणि, वह आलसियों में शिरोमणि है। लेकिन आलस्य का अर्थ समझ लेना; इसलिए शिरोमणि शब्द जोड़ा है। वह कोई साधारण आलसी नहीं है, तुम जैसा आलसी नहीं है, बड़ा विशिष्ट आलसी है। दौड़ता नहीं, सोता भी नहीं। दौड़ना और सोना तो जुड़े हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहल हैं। जो दौड़ेगा वह सोयेगा: जो सोयेगा वह दौड़ेगा। क्योंकि सोकर फिर इकट्ठी होगी, करोगे क्या? और दौड़कर शक्ति चुक जायेगी तो सोओगे नहीं तो शक्ति पाओगे कहां? तो जागना, दौड़ना, सोना जुड़े हैं। इसलिए तुमने देखा? जो आदमी दिन में ठीक-ठीक मेहनत करता है वह रात बड़ी गहरी नींद सोता है। होना तो नहीं चाहिए ऐसा। तर्क के विपरीत है यह बात। गणित के अनुकूल नहीं है। गणित तो यह होना चाहिए कि जिस आदमी ने दिन भर तकिये-गद्दों पर आराम का अभ्यास किया उसको रात गहरी नींद आनी चाहिए। दिन भर अभ्यास किया बेचारे ने, उसको फल मिलना चाहिए। लेकिन जो दिन भर विश्राम करता है. रात सो ही नहीं पाता। आखिर धनी व्यक्तियों की नींद क्यों खो जाती है? अगर तर्क से जीवन चलता होता तो धनी आदमी को ही नींद आनी चाहिए; गरीब को तो आनी ही नहीं चाहिए। लेकिन जैसे-जैसे कोई धनी होता है वैसे कुछ चीजें खोती हैं, उनमें से एक नींद अनिवार्य रूप से खो जाती है। उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। नींद तो श्रम का हिस्सा है। दौड़ो, भागो तो नींद। अगर अमरीका सबसे ज्यादा.अनिद्रा से पीड़ित है तो कुछ आश्चर्य नहीं। और अगर अमरीका में सबसे ज्यादा ट्रैक्विलाइजर बिकता है तो भी कुछ आश्चर्य नहीं। आलस्य अनिवार्य है श्रम के साथ। आलस्य श्रम से विपरीत नहीं है, श्रम का परिपूरक है। तो जब ज्ञानी कहता है अप्रयत्न, नो एफर्ट, तो अज्ञानी क्या समझता है? अज्ञानी समझता है, बिलकुल ठीक, तो दौड़ने से नहीं मिलता। और बुद्ध कहते हैं, महावीर कहते हैं, अष्टावक्र कहते हैं, बैठ जाओ, दौड़ छोड़ो। दौड़ छोड़ देता है। वह तो खुद ही थक गया। दौड़ छोड़ने को तो राजी ही है। वह चादर ओढ़कर सो जाता है। फिर भी नहीं मिलता। न तो अज्ञानी को प्रयत्न से मिलता, न अप्रयत्न से मिलता। अज्ञानी को मिलता ही नहीं, क्योंकि अज्ञानी के देखने का ढंग भ्रांत है। तो अज्ञानी ज्ञानी के पास आकर भी गलत व्याख्याएं कर लेता है। कुछ का कुछ समझ लेता है। कहो कुछ, पकड़ कुछ लेता है। __ मेरे पास पत्र आ जाते हैं। एक पत्र मेरे पास आया। पत्र लिखनेवाले ने पूछा है कि अष्टावक्र तो कहते हैं, कुछ भी न करो और आप इतना ध्यान करवा रहे हैं। जब कुछ नहीं करना है तो यह ध्यान, नाचना-कूदना, इसकी क्या जरूरत है? अब यह आदमी क्या कह रहा है? यह आदमी यह कह रहा है, जब अप्रयत्न से मिलता है तो चादर दे दो, हम ओढ़कर सो जायें। जब अष्टावक्र कहते हैं, आलस्य शिरोमणि हो जाओ तो अब जरूरत क्या है? ध्यान करने का श्रम कौन उठाये? फिर तुम भूल कर लिये। पहले प्रयत्न की भूल की, अब अप्रयत्न की भूल की। ज्ञानी की भाषा को बहुत होशपूर्वक सुनना; उसका अनुवाद मत होने देना। तुम अनुवाद मत करना अपनी भाषा में। तुम अपने को तो किनारे रख देना। तुम तो ज्ञानी की भाषा सुनना वैसी ही, जैसी वह कह रहा है-बड़ी 110 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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