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________________ ' जैसे आग जलाती, यह उसका स्वभाव, ऐसे सुखी होना चैतन्य का स्वभाव। सच्चिदानंद हमारे भीतर बसा है। भूल यही हो रही है कि हम सोचते हैं, उसे पा लेंगे बाहर। जो भीतर है उसे हम बाहर खोजते हैं। जो मिला ही हुआ है उसे हम सोचते हैं, उपाय करके पा लेंगे। उपाय से ही सब नष्ट हो जाता है। उपाय में हम इतने उलझ जाते हैं कि जो है उसके दर्शन बंद हो जाते हैं। ऐसा ही समझो कि तुम्हारे सामने ही धन पड़ा हो और तुम्हारी आंखें दूर आकाश में चांद-तारों में धन को खोज रही हैं। धन सामने पड़ा है लेकिन आंख तो सामने नहीं पड़ती। आंख तो दूर जा रही है। आंख तो दर का उपाय कर रही है। तम दर की यात्रा पर निकले हो और जिसे तम खोज रहे वह पास है। तुम जिसे प्रयत्न से खोज रहे हो वह स्वभाव से सिद्ध है। सुख किसी को मिलता नहीं। जो प्रयत्न छोड़ देता है, जो दौड़ना छोड़ देता है, जो आंख बंद करके बैठ जाता है, जो थोड़ी देर अपने भीतर रमता है, आत्माराम बनता है; जो कहता है जरा भीतर तो देख लूं, जिसे मैं बाहर खोजने चला हूं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह बाहर हो ही न, और मैं खोजूं और खोजू, थकू और हारूं। तर्क ऐसा है जीवन का कि जब तुम खोजते हो बाहर, और नहीं मिलता तो और जोर से खोजते हो। स्वभावतः मन में विचार उठते हैं कि शायद मैं पूरे भाव से नहीं खोज रहा हूं, पूरे हृदय से नहीं खोज रहा, पूरी ऊर्जा संलग्न नहीं हो रही है। दौड़ तो रहा हूं लेकिन जितना दौड़ना चाहिए उतना नहीं दौड़ रहा हूं। और बढ़ाओ दौड़ को, और तेज करो। यह तर्क स्वाभाविक है। अगर दौड़ने से नहीं मिल रहा है तो दौड़ में कहीं कोई कमी होगी। या कि दूसरे लोग ज्यादा बाधा डाल रहे हैं; इसलिए हटाओ बाधाओं को। नष्ट कर दो दूसरों को। जूझ जाओ संघर्ष में। मिटाना पड़े तो मिटा दो दूसरों को, लेकिन अपने सुख को खोज लो। तो एक गलाघोंट प्रतियोगिता शुरू होती है। दूसरे भी उसी नाव में सवार हैं, जिसमें तुम सवार हो। उन्हें भी नहीं मिल रहा। वे भी बड़े नाराज हैं। वे भी सोचते हैं कि तुम शायद बाधा डाल रहे हो। शायद तुम बीच-बीच में आ जाते हो। वे तुम्हें मिटाने में तत्पर हो जाते हैं। इसीलिए जीवन में इतना संघर्ष है, इतना द्वंद्व है, इतनी हिंसा है। और जब तक तुम भीतर के सुख को न पहचानोगे तब तक अहिंसक न हो सकोगे। कैसे होओगे अहिंसक? पानी छानकर पी लेने से कोई अहिंसक होता? पानी छानकर पी लोगे लेकिन बाजार में दूसरों का खून बिना छाने पी जाओगे। रात भोजन न करोगे इससे कोई अहिंसक होता? ये छोटी-छोटी तरकीबें हैं। किसको धोखा दे रहे हो तुम? समझना होगा कि हिंसा क्यों है? हिंसा इसलिए है कि मुझे सुख नहीं मिल रहा और मुझे आभास होता है कि तुम बाधा डाल रहे हो। पड़ोसी बाधा डाल रहा है। और बहुत प्रतियोगी हैं। सभी दिल्ली जा रहे हैं। और मैं दिल्ली नहीं पहुंच पा रहा हूं। भीड़ बहुत है। और आगे लोग, पीछे लोग, चारों तरफ लोग। और इतना घमासान मचा है कि जब तक नहीं उठाऊंगा तलवार हाथ में, रास्ता साफ होनेवाला नहीं है। और लगता है कि शायद दूसरे पहुंच गये हैं। तो संघर्ष पैदा होता है, हिंसा पैदा होती है। हिंसा का मूल है कि जीवन में सुख नहीं मिल रहा है इसलिए हिंसा पैदा होती है। सिर्फ सुखी आदमी हिंसक नहीं होता। क्यों होगा? कोई कारण न रहा। जो चाहिए था मिल गया, फिर हिंसा कैसी! 108 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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