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________________ राजी, वह उसका दुर्भाग्य ! मुझे कुछ भाषा से लेना-देना नहीं है। फिर यह जो मैं कह रहा हूं यहां सूत्रों के ऊपर, यह कोई व्याख्या, टिप्पणी- टीका नहीं है। जो मुझे कहना है वह मैं जानता हूं। जो मुझे कहना है, वह मुझे हो गया है। जो मुझे कहना है, उसका मैं स्वयं गवाह हूं। जब मैं एक संस्कृत का सूत्र सुनता हूं तो कुछ ऐसा नहीं है कि इस सूत्र पर व्याख्या करने जा रहा हूं। नहीं, जो मुझे हुआ है, वह और इस सूत्र का संगीत दोनों को मिल जाने देता हूं-फर उससे जो पैदा हो जाये। इसको टीका कहनी ठीक नहीं है, इसको व्याख्या कहनी भी ठीक नहीं है। यह तो मेरे भीतर हुई अनुगूंज है। जैसे कि तुम पहाड़ों में गये और तुमने जोर की आवाज की और घाटियों में गूंज हुई- तुम क्या कहोगे, घाटियों ने व्याख्या की ? घाटियां क्या व्याख्या करेंगी ? घाटियों ने क्या किया ? तुमने एक आवाज की थी, घाटियों ने अपने प्राणों में उस आवाज को ले लिया और वापिस बरसा दिया। घाटियों ने अपनी सुगंध उसमें मिला दी, घाटियों ने अपनी शांति उसमें डाल दी, घाटियों ने अपनी नीरवता उसमें प्रवष्टि कर दी। घाटियों ने अपना इतिहास उसमें जोड़ दिया। घाटियों ने अपनी आत्मकथा उसमें सम्मिलित कर दी, बस । इन सूत्रों के माध्यम से मैं अपनी आत्मकथा इनमें उंडेल देता हूं। जब मैं बोलता हूं तो जो मैं बोलता हूं वह मेरे संबंध में ही है। ये सूत्र तो बहाना हैं, खूंटियां हैं, जिन पर मैं अपने को टांग दे हूं। लेकिन तुमने पूछा, ठीक । चेतना बड़े प्रेम से गुनगुनाती है। उसका प्रेम देखो! पाठ इत्यादि व्यर्थ की बातें हैं। व्याकरण वगैरह की कोई भूल करती हो तो जो मूढ़ ही यहां होंगे, उनको खटकेगी। मूढ़ों को व्यर्थ की बातें खटकती हैं। तुम उसका प्रेम देखो, उसका भाव देखो, उसका समर्पण देखो! गदगद होकर गाती है, हृदय से गाती है, अपने हृदय को उंडेल देती है। 96 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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