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________________ उलटे-सीधे सवाल तो न पूछो। न जाना हो तो कोई तुम्हें भेज भी नहीं सकता। न जाना हो तो कम से कम ईमानदारी तो बरतो; यह कहो कि हमें जाना नहीं है इसलिए नहीं जाते; जब जाना होगा जायेंगे । लेकिन आदमी बेईमान है। आदमी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि मैं ईश्वर की तरफ अभी जाना नहीं चाहता। आदमी बड़ा बेईमान है! हाथ फैलाता संसार में है और कहता है, जाना तो ईश्वर की तरफ चाहते हैं, लेकिन करें क्या, रास्ता नहीं मिलता ! तो पतंजलि ने क्या दिया है ? तो अष्टावक्र ने क्या दिया है? तो बुद्ध - महावीर ने क्या दिया ? रास्ते दिये हैं। सदियों से तीर्थंकर और बुद्धपुरुष रास्ते दे रहे हैं; तुम कहते हो, रास्ता क्या है ! इतने रास्तों में से तुमको नहीं मिलता; एकाध रास्ता मैं और बता दूंगा, तुम सोचते हो, इससे कुछ फर्क पड़ेगा? यही तुम बुद्ध से पूछते रहे, यही तुम महावीर से पूछते रहे, यही तुम मुझसे पूछ रहे हो, यही तुम सदा पूछते रहोगे। समय के अंत तक तुम यही पूछते रहोगे, रास्ता नहीं है। लेकिन बेईमानी कहीं गहरी है: तुम जाना नहीं चाहते। पहले वहीं साफ-सुथरा कर लो। पहले प्यास को बहुत स्पष्ट कर लो। मेरे अपने अनुभव में ऐसा है जो आदमी जाना चाहता है, उसे पूरा संसार भी रोकना चाहे तो • नहीं रोक सकता। तुम खोजना चाहो, खोज लोगे। और जब तुम्हारी प्यास बलवती होती है, लपट की तरह जलती है तो सारा अस्तित्व तुम्हें साथ देता है। अभी तुम खोजते तो धन हो और बातें परमात्मा की करते हो; खोजते तो पद हो, बातें परमात्मा की करते हो, खोजते कुछ हो, बातें कुछ और करते हो । बातों के जरिए तुम एक धुआं पैदा करते हो अपने आसपास, जिससे दूसरों को भी धोखा पैदा होता है, खुद को भी धोखा पैदा होता है। दूसरों को हो, इसकी मुझे चिंता नहीं; लेकिन खुद को धोखा पैदा हो जाता है। तुमको खुद लगने लगता है कि तुम बड़े धार्मिक आदमी हो, कि देखो कितनी चिंता करते हो, सोच-विचार करते हो ! मैंने सुना है कि लंका में एक बौद्ध भिक्षु हुआ । उसके बड़े भक्त थे, हजारों भक्त थे। जब वह मरने को हुआ, आखिरी दिन उसने खबर भेज दी अपने सारे भक्तों को कि तुम आ जाओ, अब मैं हूं। काफी उम्र, नब्बे वर्ष का हो गया था। कोई बीस हजार उसके भक्त इकट्ठे हुए। और उसने खड़े होकर पूछा कि देखो, अब मैं जाने को हूं, अब दुबारा मेरा - तुम्हारा मिलना न होगा, इसलिए अगर कोई मेरे साथ निर्वाण में जाना चाहता हो तो खड़ा हो जाये। लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। जो जिसको निर्वाण में भेजना चाहता था उसकी तरफ देखने लगा । लोग इशारा करने लगे कि चले जाओ। जो जिसको हटाना चाहता था, उससे कहने लगा: 'अब क्या बैठे देख रहे हो ! भई हमें तो अभी दूसरी झंझटें हैं, अभी और काम हैं; मगर तुम क्या कर रहे हो ! तुम चले जाओ !' कोई उठा नहीं। सिर्फ एक आदमी ने हाथ उठाया । वह भी उठा नहीं, हाथ उठाया। तो उस बौद्ध भिक्षु ने पूछा कि मैंने कहा, उठकर खड़े हो जायें, हाथ उठाने को नहीं कहा। उसने कहा: 'इसी डर से तो मैं सिर्फ हाथ उठा रहा हूं। मैं सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि रास्ता क्या है स्वर्ग जाने का, मोक्ष जाने का या निर्वाण जाने का ? रास्ता बता दें आप। क्योंकि अभी इसी वक्त जाने की मेरी तैयारी नहीं है। मगर रास्ता पूछ लेता हूं, क्योंकि दुबारा आप मिलें न मिलें। रास्ता काम आयेगा; जब जाना चाहूंगा, रास्ते का उपयोग कर लूंगा।' एकाकी रमता जोगी 93
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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