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________________ है। थोड़ा सोचना। छोटे बच्चे को देखो, टेबल से धक्का लग जाता है तो टेबल को एक चांटा लगा देता है कि अपनी जगह रह, अगर ज्यादा गड़बड़ किया तो बहुत पिटाई हो जायेगी! दीवाल से सिर टकरा जाता है तो दीवाल को मारने लगता है। यह छोटे बच्चे का व्यवहार है। रसेल की बात बड़ी विचारपूर्ण है, लेकिन रसेल को कोई पता नहीं है कि एक ऐसी भी दशा है परम मुक्ति की, एक ऐसी दशा है परम कैवल्य की जहां व्यक्ति पुनः बच्चे की भांति हो जाता है। और जीसस का तो प्रसिद्ध वचन है कि जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे, दूसरे नहीं। बहुत कठिन है यह बात स्वीकार करनी, क्योंकि हम संत से तो बहुत संयोजित व्यवहार की आशा रखते हैं। संत से तो हम आशा रखते हैं कि उसके व्यवहार में कोई कमी-खामी न होगी, कोई त्रुटि न होगी। संत से तो हम पूर्ण होने की आशा रखते हैं। क्योंकि संत तो हमारे लिये आदर्श हैं, उसका तो हम अनुकरण करेंगे। लेकिन तुम सुनो, अष्टावक्र कहते हैं कि परम संत वही है जो बालवत है। पूर्ण नहीं है, समग्र है। पूर्ण और समग्र के भेद को समझ लेना। बच्चा सदा समग्र होता है, पूर्ण कभी नहीं होता। एक समग्रता होती है। बच्चा जब क्रोध करता है तो क्रोध हो जाता है। फिर कुछ नहीं बचता है उसमें, वह आग होता है। इसलिए बच्चे को क्रोधित देखो तो एक सौंदर्य होता है बच्चे में। तुमने न देखा हो, गौर करके देखना। तुम अपने छोटे-मोटे और दूसरे विचार एक तरफ रख देना। जब एक छोटा बच्चा नाराज होता है तो छोटा-सा प्राण, लेकिन ऐसा लगता है सारी दुनिया को हिला देगा। पैर पटकता है पथ्वी पर जोर से। उसकी नाराजगी में एक बल है. एक सौंदर्य है. एक कौमार्य है. एक कोमलताऔर फिर भी एक महाशक्ति! और क्षण भर बाद भूल गया। क्षण भर पहले तुम पर क्रोधित हुआ था और कहता था ः 'अब कभी तुम्हारी शक्ल न देखेंगे, दोस्ती खत्म!' कट्टी कर ली थी। क्षण भर बाद तुम्हारी गोद में बैठा है। याद ही न रही। बड़ा असंगत व्यवहार है बच्चे का! लेकिन समग्र है। जब क्रोध में था तो पूरा क्रोध में था; जब प्रेम में है तो पूरा प्रेम में है। उसके प्रेम को उसका क्रोध आ कर खराब नहीं करता और उसके क्रोध को उसका प्रेम आ कर खराब नहीं करता; जब होता है तब समग्र होता है, पूरा-पूरा होता है। जो होता है वही होता है; उससे अन्यथा नहीं होता। उसके जीवन में एक प्रामाणिकता है। बच्चा बिलकुल चरित्रहीन होता है; उसका कोई चरित्र नहीं होता। चरित्र होने के लिए तो बड़ी चालाकी चाहिए। चरित्र होने के लिए तो आयोजन चाहिए, व्यवस्था चाहिए। चरित्र होने के लिए तो बड़ी कुशलता चाहिए, होशियारी चाहिए, तर्क चाहिए, गणित चाहिए। चरित्र का तो अर्थ होता है : सम्हल-सम्हल कर चलो। चरित्र का तो अर्थ होता है : देख-देख कर करो; जो करना हो वही करो, जो न.करना हो वह मत करो। सोच कर करो कि कल इसका क्या परिणाम होगा? परसों क्या परिणाम होगा? आज तुम ऐसा कहोगे तो क्या प्रतिक्रिया होगी? आज तुम ऐसा करोगे तो क्या प्रतिक्रिया होगी? तो चरित्रवान व्यक्ति कभी समग्र नहीं होता; हिसाबी होता है, किताबी होता है। उसके बही-खाते होते हैं। छोटा बच्चा चरित्रहीन है। 'चरित्र-मुक्त' कहना चाहिए; 'हीन' कहना ठीक नहीं, चरित्र-मुक्त। अभी चरित्र पैदा ही नहीं हुआ। अभी समग्र है। अभी तो जो भीतर की सचाई है वही बाहर प्रगट होती है। अगर भीतर क्रोध है तो बाहर क्रोध है। अगर भीतर प्रेम है तो बाहर प्रेम है। अभी भीतर और बाहर साक्षी आया, दख गया 47
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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