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________________ रुक जाये तो एक-एक लहर को शांत न करना पड़ेगा, हवा के रुकते ही लहरें अपने से शांत हो जायेंगी। अब मजा यह है कि हवा दिखाई नहीं पड़ती। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसको हम भूल जाते हैं। तृष्णा भी दिखाई नहीं पड़ती; हवा जैसी है । है, बहुत गहन है, लेकिन अदृश्य है, हाथ में पकड़ में नहीं आती। तो जब तुम झील की छाती पर लहरों का तूफान देखते हो तो तुम सोचते हो, लहरों को कैसे शांत और जो मूल कारण है वह अदृश्य है । तुम एक-एक लहर को शांत करने बैठ जाना, एक-एक लहर को लोरी सुनाना कि सो जा, कि प्यारी बिटिया सो जा, मंत्र पढ़ना राम-राम, अल्लाह- अल्लाह या नमोकार और बीच-बीच में आंख खोल कर देखना कि मंत्र का असर हो रहा कि नहीं — लहरें तुम्हारे मंत्रों को सुनने वाली नहीं हैं । लहरें इसलिए नहीं उठी हैं कि मंत्र का अभाव है। अगर मंत्र के अभाव के कारण उठी होतीं तो मंत्र के बोलते ही चुप हो जातीं, बैठ जातीं। लहरें इसलिए उठी हैं कि उनकी छाती पर एक अदृश्य हवा चल रही है, जो हवा उन्हें कंपा रही है। अब पानी कोई पत्थर थोड़े ही है। पत्थर पर लहरें नहीं उठतीं, पानी पर लहरें उठती हैं। पानी तरल है, तरंगित होता है। अदृश्य हवा के झोंके भी उसे हिला जाते हैं। तुम्हारे मन में जो तरंगें उठ रही हैं, वे तृष्णा की हवा से उठ रही हैं। अब बहुत लोग हैं जो मन को शांत करना चाहते हैं। एक-एक विचार को शांत करना चाहते हैं। किसी को क्रोध का विचार आता है, वह कहता है, किस तरह शांत हो जाये ? किसी को कामवासना उठती है, कहता है, कैसे शांत हो ? कसको लोभ है, किसी को मोह है - सबको शांत करने में लगे हैं। इससे कभी तुम शांत न हो पाओगे। संभावना यही है कि विमुक्त तो न हो, विक्षिप्त हो जाओ। मेरे देखे सांसारिक आदमी ही ज्यादा शांत होता है तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमियों की बजाय। तो मेरी बात को जरा गौर से सुनना और जरा फिर से जाकर तुम अपने साधु-संन्यासियों को देखना। तुम्हें शायद बाजार में कुछ लोग शांत मिल जायें, तुम्हारे साधु-संन्यासी शांत नहीं हैं। क्योंकि बाजार में तो आदमी को एक ही अशांति है, क्योंकि संसार की ही लहर उसके ऊपर बह रही है; यह जो मंदिर में बैठा है, यह जो आश्रम में बैठा है, यह जो साधु है, महात्मा है— इस पर एक और अशांति सवार हो गई है, शांत होने की तृष्णा जाग गई, मोक्ष पाने की तृष्णा ! सांसारिक तो ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहा है जो ठीक-से कोशिश करो तो मिल भी जायें । जिसको तुम धार्मिक कहते हो, ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहा है जो दौड़ने से मिलती ही नहीं; दौड़ना ही जहां बाधा है; जो रुकने से मिलती हैं। धन के पीछे अगर ठीक-से दौड़ोगे तो धन मिल जायेगा; ऐसी कुछ अड़चन नहीं है। तुमसे भी ज्यादा बुद्धओं को मिल गया तो तुम्हें क्यों न मिल जायेगा ! ठीक से मेहनत करोगे तो संसार के विजेता हो सकते हो; सिकंदर हो गया है तो तुम क्यों न हो जाओगे ! दौड़ते ही रहे पागल की तरह तो कुछ न कुछ पा ही लोगे; कहीं न कहीं बैंक में बैलेंस हो ही जायेगा; कोई न कोई बड़ा मकान बना ही लोगे । लेकिन परमात्मा तो दौड़ने से मिलता ही नहीं और सत्य तो दौड़ने से मिलता नहीं। शांति तो दौड़ने से मिलती नहीं। क्योंकि दौड़ने में ही अशांति है। समझो ! दौड़ने में ही अशांति है। जैसे ही कोई नहीं दौड़ता, तृष्णा चुप हो गई। तृष्णा यानी दौड़ । तृष्णा यानी कहीं और है सुख, यहां नहीं; अभी नहीं, साक्षी आया, दुख गया 37
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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