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हैं। लेकिन जो मैं कहना चाहता हूं, वह तो एक ही है।
इसलिए मुझे तो कोई विरोधाभास दिखाई भी नहीं पड़ा कि पश्चात्ताप करूं, कि वापिस ले लूं। हां, तम्हारी तकलीफ मैं समझता है। तम्हें बहत बार लगता होगा कि कभी मैं कछ कह देता हं. कभी कुछ कह देता हूं। क्योंकि तुम इतने विस्तीर्ण सत्य को लेने को तैयार नहीं हो। तुम बहुत संकीर्ण सत्य को लेने को तैयार हो। जब मैं कहता हूं भक्ति से भगवान मिल जायेगा, तो जो भक्त है वह कहता है ठीक। और जब मैं ज्ञान पर बोल रहा होता हूं, तो मैं कहता हूं, भक्ति से कैसे भगवान मिलेगा? वह भक्त घबड़ाया, उसने कहा: 'मामला गड़बड़ हो गया! हम तो कल राजी हो गये थे, हम तो बिलकुल तैयार हो गये थे कि अब संन्यास ले लें इस आदमी से, यह अपनी ही बात कह रहा है और आज ये कह रहे हैं कि भक्ति से कैसे भगवान मिलेगा? क्योंकि भक्त जब तक है तब तक कैसे भगवान मिलेगा? जब तक मैं है तब तक तो तू बना रहेगा। और जब तक तू है तब तक मैं भी बना रहेगा। साक्षी से मिलेगा, भक्ति से नहीं। भक्ति में तो राग है। ___ तो तुम घबड़ाये। लेकिन जो साक्षी को मानने वाला था, वह चौंक कर बैठ गया। उसने कहा, अब बात ठीक हुई; यह आदमी अब तक गलत-सलत बोल रहा था, लेकिन आज पते की कही।
लेकिन मैं एक ही बात कह रहा है। ये अलग-अलग माध्यम हैं। ये अलग-अलग मार्ग हैं। इन सबसे उसी एक शिखर पर हम पहुंच जाते हैं। . और मैंने ऐसा चुना है कि मैं सभी मार्गों की तुमसे बात करूंगा। ऐसा पहली दफा हो रहा है। बुद्ध ने एक मार्ग की बात कही, महावीर ने एक मार्ग की बात कही, नारद ने एक मार्ग की, अष्टावक्र ने एक मार्ग की। इसका दुष्परिणाम हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिसने अष्टावक्र को माना वह नारद के विपरीत हो गया; जिसने नारद को माना वह बुद्ध के विपरीत हो गया; जिसने बुद्ध को माना वह महावीर के विपरीत हो गया। और मेरा जानना है कि ये कोई भी विपरीत नहीं हैं; ये सब एक ही तरफ इशारा कर रहे हैं। अंगुलियां अलग-अलग: जिस चांद की तरफ इशारा है, वह चांद एक है। तम चांद को देखो. अंगली को पकड़ कर मत बैठ जाओ। इस सत्य को उजागर करने के लिए मैंने तय किया कि मैं सब पर बोलूंगा। और जब मैं एक पर बोलता हूं तो मैं सब भूल जाता हूं जो मैं पहले बोला; तभी तो इस पर बोल सकता हूं, नहीं तो बोल न पाऊंगा। तब न्याय न हो सकेगा।
अगर, समझो कि अष्टावक्र पर बोलते वक्त मैं जरा भीतर नारद का राग भी रखू कि कहीं ऐसा न हो, नारद गलत न हो जायें, तो फिर लीपा-पोती हो जायेगी। फिर अष्टावक्र पर मैं पूरे रूप से न बोल सकूँगा। जब अष्टावक्र पर बोलता हूं तो नानक समझें अपनी, नारद समझें अपनी, कबीर-मीरा अपनी फिक्र कर लें; मैं फिक्र नहीं करता। फिर मेरी फिक्र एक ही है कि अष्टावक्र के साथ प्रामाणिक रूप से उनकी बात पूरी की पूरी तुम तक पहुंचा दूं। फिर मैं अष्टावक्र के साथ पूरा लीन हो जाता हूं। फिर मैं नहीं बोलता, फिर मैं अष्टावक्र को बोलने देता हूं। इसलिए तुम्हें विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं। मगर तुम कहीं से भी चल पड़ो, तुम किसी भी मार्ग को पकड़ लो। जिस दिन पहुंचोगे उस दिन जानोगे कोई विरोधाभास नहीं है। __'कोई बीस वर्षों से आप हम लोगों से बोल रहे हैं। आपके अनेक वक्तव्य एक-दूसरे का खंडन करते हैं।'
संन्यास-सहज होने की प्रक्रिया
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