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तो मिल गया, मूढ़ता नहीं मिटी।
'यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?' यह वचन बड़ा अनूठा है। सुनोनिष्कामः किंविजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।
जिस व्यक्ति ने ऐसा जान लिया कि ब्रह्म ही है, मैं नहीं हूं, उसकी सब वासना चली जाती है। चली ही जायेगी, चली ही जानी चाहिए।
पहली बातः तुम्हें साधारणतः समझाया गया है कि जब तुम्हारी वासना चली जायेगी, तब ब्रह्म तुम्हें मिलेगा। नहीं, बात थोड़ी उल्टी हो गयी। जब ब्रह्म मिल जाता है, तो ही वासना जाती है। तुमने जरा बैलगाड़ी में बैल पीछे बांध दिये, गाड़ी के पीछे बैल बांध दिये। वासना तो तब तक रहेगी जब तक तुम हो। रूप बदल ले, नये रास्ते पकड़ ले, यहां तक भी हो सकता है कि ब्रह्म को जानने की वासना बन जाये कि मैं ब्रह्म को जानं. कि मैं मोक्ष को पाऊं मगर यह भी वासना है। धन पाऊं-वासना। ध्यान पाऊ-वासना। संसार मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो-वासना। परमात्मा मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो-वासना। इस जीवन में सुख मिले-वासना। परलोक में सुख मिले, बहिश्त में, स्वर्ग में-वासना। वासना नये रूप ले सकती है, नये आयाम ले सकती है, नयी दिशाएं पकड़ सकती है, नये विषयों पर आधारित हो सकती है। मिटेगी नहीं। जब तक तुम हो, वासना रहेगी। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी में वासना की तरंगें उठती हैं। तुम्हारी मौजूदगी वासनाओं की तरंगों के लिए स्रोत है। जब तुम ही खो जाते हो तभी वासना खोती है।
तुम तो एक ही उपाय से खो सकते हो और वह यह है कि तुम मौन हो कर, यह भीतर कौन तुम्हारे विराजमान है इसको आंख में आंख डाल कर देखने लगो। तो जिन्होंने तुमसे कहा है, वासना को पहले खोओ, उन्होंने तुम्हें झंझट में डाल दिया। उन्होंने तुम्हारे जीवन में नयी वासनाओं को जन्म दे दिया-धार्मिक वासनाएं। मैं तुमसे कहता हूं, वासना तुम नहीं खो सकते, लेकिन विचार तुम खो सकते हो। और विचार को खो दिया तो तुम जानोगे कि मैं कहां, मैं कौन; वही है। जब वही है तो फिर वासना के लिए कोई कारण नहीं रह गया। जब मैं हूं ही नहीं तो बांस मिट गया, अब बांसुरी नहीं बज सकती। बांस ही न बचा तो बांसुरी कैसी!
वासना तो छाया है; जैसे तुम रास्ते पर चलते हो और छाया बनती है। तुम जा कर बैठ गये शांत, वृक्ष के नीचे, धूप में नहीं चलते, छाया बननी बंद हो गयी। जिस दिन अहंकार शांत हो कर बैठ जाता है, बैठते ही गिर जाता है, क्योंकि अहंकार दौड़ने में ही जीता है; बैठने में कभी जीता नहीं। अहंकार महत्वाकांक्षा में जीता है, भाग-दौड़, आपाधापी में जीता है, ज्वर में जीता है। अहंकार शांत बैठने में तो बिखर जाता है। तुम बैठ गये शांत छाया में, मौन हो गये, विचार न रहे, तुम न रहे, वासना भी गयी। इस घड़ी में अष्टावक्र का सूत्र कहता है : निष्काम हुआ पुरुष क्या जानता है ?
तुम शायद सोचते होओगेः जब हम बिलकुल शांत हो जायेंगे तो कुछ जानेंगे। तो फिर जाननेवाला बना रहा। तो अभी तुम बिलकुल शांत नहीं हुए, पूरे शांत नहीं हुए, समग्र रूपेण शांत नहीं हुए। अब तुमने कुछ और बचा लिया; भोक्ता न रहे तो ज्ञाता बन गये। .
अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा पुरुष क्या जानेगा? जाननेवाला ही नहीं बचा तो अब जानने को क्या
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4