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________________ मन में ज्ञान के प्रति बड़ी अरुचि पैदा कर दी है। ऐसे ज्ञानियों के कारण जीवन की परम गुह्य बातें भी उबाने वाली हो गयी हैं। उनसे रस समाप्त हो गया। चुप रहो! अगर किसी को पता चलेगा कि तुम्हें ज्ञान मिल गया, तुम्हें कुछ जागरण आ गया, लोग अपने-आप आने लगेंगे। कोई पूछे, तब कह देना। यहां तो कोई भी तुमसे पूछ नहीं रहा था, कम-से-कम मैंने तो नहीं पूछा था। लेकिन अहंकार रास्ते खोजता है, नये-नये रास्ते खोजता है। किसी भी तरह से अहंकार अपने को प्रतिस्थापित करना चाहता है कि मैं कुछ हूं, विशिष्ट हूं। और वही विशिष्टता तुम्हारा कारागृह है। (वह तो आखिरी प्रश्न नहीं था, क्योंकि उत्तर था।) आखिरी प्रश्नः आपने कहा कि कृष्ण भरोसे के नहीं थे; उनसे अधिक गैर-भरोसे का आदमी खोजना कठिन है। लेकिन मैं समझती हूं कि एक हैं जो उनसे भी अधिक गैर-भरोसे । के हैं। क्या आप उन पर बोलना पसंद करेंगे, क्योंकि वे स्वयं भगवान श्री रजनीश हैं? उ न पर बोलने का खतरा तो मैं भी नहीं | लूंगा। उनके संबंध में पूछो तो इतना ही कहूंगाः हरि ॐ तत्सत्! 304 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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