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तब मुक्ति होगी। ऐसे कहीं मुक्ति होती है?' तुम मुक्ति अर्जित करना चाहते हो। खयाल रखना, अर्जन करने की सब आकांक्षा अहंकार की है। अहंकार कहता है : 'अर्जित करूंगा! जैसे धन कमाया, ऐसे ध्यान कमाऊंगा। जैसे मकान बनाया, ऐसे मंदिर बनाऊंगा! जैसे संसार रचाया, ऐसे मोक्ष भी रचाऊंगा!' ___ जो रचाया जाता है, वह संसार है। जो रचा ही हुआ है और केवल जाग कर देखा जाता है, वही मोक्ष है। तुम कहते हो, जैसे मैंने पद-पदवियां पायीं, ऐसे ही परमात्मा को भी पाऊंगा। तुम कहते हो, परमात्मा परम पद है। तुमने अपनी भाषा में उसको भी पद बना रखा है; जैसे वह जरा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से और जरा ऊपर। 'वहां पहुंच कर रहूंगा।' लेकिन पद है!
परमात्मा पद नहीं है तुम्हारा स्वभाव है। तुम वहां हो। तुम वहां से रत्ती भर हट नहीं सकते। तुम लाख चाहो तो तुम वहां से गिर नहीं सकते। गिरने की कोई सुविधा नहीं है। तुम कहीं भी रहो, परमात्मा ही रहोगे। नर्क में रहो, स्वर्ग में रहो, तुम परमात्मा ही रहोगे। तुम्हारा भीतर का स्वभाव बदलता नहीं, बदला जा सकता नहीं। स्वभाव हम कहते ही उसी को हैं जो बदला न जा सके; जिसमें कोई बदलाहट न होती हो; जो शाश्वत है; जो सदा है और सदा एकरस है। .. अब तुम पूछते हो : 'तो फिर संचित का क्या भविष्य बनता है?'
तुम संचित का हिसाब लगा रहे हो। संचित क्या है? एक सपना अभी देखा, एक सपना कल देखा था, एक सपना परसों देखा था-कल और परसों के सपनों को तुम संचित कहते हो? जब यही जो तुम देख रहे हो, सपना है, तो जो कल देखा था वह भी सपना हो गया, जो परसों देखा था वह भी सपना हो गया। संचित यानी क्या? अगर तुम्हें यह सपना सपना समझ में आ गया, जो तुम अभी देख रह हो, तो सारे जन्मों-जन्मों के सपने सपने हो गये। बात खतम हो गयी। तुम सुबह उठ कर यह थोड़े ही कहोगे कि ‘सपने में एक आदमी से रुपये उधार ले लिये, वापिस तो करना पड़ेंगे न? आप तो कहते हो मुक्त हो गये, मान लिया, मगर अदालत पकड़ बैठेगी। वापिस तो करना पड़ेंगे न जिससे रुपये ले लिये हैं सपने में?' सपने में रुपये ले लिये वापिस करने पड़ेंगे! कि सपने में किसी को रुपये दे दिये, वापिस लेने पड़ेंगे! कि सपने में किसी को मार दिया, क्षमा मांगनी पड़ेगी! कि सपने में किसी ने अपमान कर दिया तो बदला लेना पड़ेगा! संचित क्या? - अब इसे समझना। संचित का अर्थ होता है कि तुम्हारी यह धारणा है कि तुमने कुछ किया। तुम कर्ता थे, तो कर्म बना।
ऐसा समझो, तुम साधारणतः सोचते हो कि कर्म हमें पकड़े हुए हैं। अष्टावक्र जैसों की उदघोषणा कुछ और है। वे कहते हैं, कर्ता का भाव तुम्हें पकड़े हुए है, कर्म नहीं। कर्ता के भाव के कारण फिर कर्म पकड़े हुए हैं। अगर कर्ता का भाव छूट गया तो मूल से बात कट गयी; कर्म का तो अर्थ ही न रहा। फिर परमात्मा ने जो किया, किया; जो करवाया, करवाया। जो उसकी मर्जी थी, हुआ। ___ इधर तो तुम कहते हो, उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता-और फिर भी संचित कर्म तुम करते हो! पुण्य-पाप तुम करते हो, उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता! तुम कौन हो? तुम बीच में क्यों आ गये हो? तुम कह दो : 'जो हआ उसके द्वारा हआ। जो नहीं हआ उसके द्वारा हआ। अगर मैंने किसी को मारा तो उसने ही किया होगा। और अगर किसी ने मुझे मारा तो उसकी मर्जी रही होगी।
आलसी शिरोमणि हो रहो
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