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मां-बाप अपराधी हैं। तुम श्रद्धा के योग्य ही नहीं हो। तुम इतनी झूठे बोले हो...।
मेरे एक शिक्षक थे। वे स्कूल में तो सिखाते कि सच बोलना चाहिए। एक दिन मैं उनके घर बैठा कुछ...गणित उन्होंने दिया था, वह कर रहा था। एक आदमी ने द्वार पर दस्तक दी। उन्होंने मुझे कहा कि जा कर कह दो कि वे अभी घर में नहीं हैं। मैं बड़े सोच में पड़ा कि अब करना क्या? कहते हैं सच बोलो, आज कह रहे हैं कि कह दो कि घर में नहीं हैं! तो स्वभावतः मैंने दोनों के बीच कोई रास्ता निकाला। मैंने जा कर उनसे कहा कि सुनिये, हैं तो घर में, लेकिन कहते हैं कि घर में नहीं हैं। अब आप समझ लें। क्योंकि उन्होंने मुझे सच बोलने को भी कहा है, तो मैं झूठ भी नहीं बोल सकता। और जो उन्होंने कहा है वह भी मुझे कहना ही चाहिए। क्योंकि वही उन्होंने कहा है, मैंने उसमें कुछ जोड़ा नहीं। इसलिए बात पूरी आपके सामने रख दी, अब आप समझ लो।
वे शिक्षक मुझ पर बड़े नाराज हुए। उन्होंने कहाः तुमसे कहा था न कि कह दो घर में नहीं हैं। मैंने कहाः मैंने कहा। वे बोले : तुमसे यह किसने कहा था कि कह दो कि यह भी मैं ही कह रहा हूं घर में बैठा हुआ। मैंने कहाः आप स्कूल में सदा कहते हैं कि सच बोलो। आप कह दो कि झूठ बोलो, तो मैं उसका पालन करने लगेगा।
वे बड़ी बेचैनी में पड़े। वे मुझे कभी क्षमा न कर सके। उस दिन के बाद मुझे स्कूल में भी मैं उनको देखता तो इधर-उधर आंख करते।
श्रद्धा कैसे उत्पन्न हो? बाप बेटे से कहता है झूठ मत बोलो। और ऐसी सरासर झूठे बोलता है! शायद सोचता है, बेटे के हित में ही बोल रहा हूं। शायद इसीलिए कह रहा है कि हां, ईश्वर है कि
बेटा अनीश्वरवादी न हो जाये। बेटे के हित में ही बोल रहा है। लेकिन झठ किसी के हित में हो सकती है? कितनी ही दिखाई पड़े हित में, लेकिन हित में हो नहीं सकती। जो हित में है वह सच है। जो सच है वही हित में है। सत्य के अतिरिक्त और कोई कल्याण नहीं है। सत्य के अतिरिक्त और कोई मंगल नहीं है। ___ तो तुम्हें जो स्थिति है उससे अन्यथा मत कहना। कहना ः खाली-खाली लग रहा हूं। पता-ठिकाना खो गया। अभी नये का पता नहीं चल रहा। चलेगा तो निवेदन कर दूंगा। नहीं चला तो मैं क्या कर सकता हूं? ___इस सचाई से जीने का नाम ही संन्यास है। जो है उससे अन्यथा न करने का नाम संन्यास है। जैसा है वैसा ही स्वीकार करने का नाम संन्यास है।
खतरा क्या है, इसमें गड़बड़ क्या है? तुम्हें तकलीफ क्या हो रही है? तकलीफ यह हो रही है कि लोग समझेंगे, अज्ञानी हो। अरे, तुम्हें यह भी पता नहीं कि तुम कौन हो? वह जो पूछने वाला है वह इसीलिए पूछ रहा है कि बताओ कहां से आये हो? कौन हो? कहां जा रहे हो? वह तुम्हें देखता है गैरिक वस्त्रों में तो सोचता है कि महात्मा आ रहे हैं। उसे पता नहीं, ये मेरे महात्मा बहुत भिन्न प्रकार के हैं! यह पुराने ढंग का ढकोसला नहीं है। पुराने संन्यासी को तो मैं सत्यानाशी कहता हूं। यह और ही ढंग का संन्यासी है। यह परम स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में जीने वाला संन्यासी है। इसके ऊपर कोई बाह्य आरोपण नहीं है। इसका भीतर का छंद ही इसके जीवन की व्यवस्था है। इसका आंतरिक अनुशासन ही एकमात्र अनुशासन है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4