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________________ हो गये हैं, वह पुरुष कैसी अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त होता है। मनः प्रकाशसंमोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः। दशां कामपि संप्राप्तो भवेद्गलितमानसः।। जिसका मन गल गया-गलितमानसः! जिसकी आकांक्षा न रही, वासना न रही, कामना न रही, जो कुछ चाहता नहीं, जो है उसके साथ परिपूर्ण तृप्त है—ऐसे व्यक्ति का मन गल गया। ऐसा व्यक्ति अ-मन की दशा को उपलब्ध हो गया; कबीर ने जिसको 'अ-मनी दशा' कहा है। ऐसे व्यक्ति के सारे सम्मोहन, सारे स्वप्न, सारी जड़ता समाप्त हो गयी। ऐसा व्यक्ति स्वप्न नहीं देखता है। __जिस दिन तुम्हारे भीतर सारे स्वप्न समाप्त हो जाएंगे, जागते-सोते, उस दिन तुम्हारे भीतर जो निर्मल दशा पैदा होगी; जिस दिन तुम्हारे भीतर एक भी विचार का धुआं न उठेगा और आकाश बादलों से बिलकुल खाली होगा, उस दिन तुम्हारे भीतर जो कैवल्य की दशा उत्पन्न होगी...अष्टावक्र कहते हैं : वह पुरुष कैसी अनिर्वचनीय दशा को प्राप्त होता है! उस दशा का कोई निर्वचन नहीं, कोई व्याख्या नहीं। उस दशा के लिए कोई शब्द नहीं-अतिक्रमण कर जाती है सभी शब्दों का। भाषा असमर्थ है उसे कहने में; वाणी नपुंसक है उसे प्रगट करने में। नहीं, उस गीत को कभी गाया नहीं गया है। बहुत चेष्टा की गयी है उसे कहने की, उसे नहीं कहा जा सकता। उसे तो सिर्फ हुआ जा सकता है। तम अगर उस अनिर्वचनीय दशा को जानना चाहो तो चलो साक्षीभाव में। स्वाद से ही जानोगे। अनुभव से ही प्रगट होगी। और तुम अनुभव के हकदार हो। तुमने अब तक अपना हक मांगा नहीं; यह तुम्हारी जिम्मेवारी है। तुम्हारे भीतर मैं उस दर्पण को देखता हूं निखालिस, अभी मौजूद! तुम जरा भीतर झांक लो, वह दर्पण तुम्हें भी दिखाई पड़ जाये, तो तुम अचानक पाओगेः रहते संसार में संसार के बाहर हो गये; प्राप्त को तो भोगने ही लगे, अप्राप्त को भी भोगने लगे; दृश्य को तो भोगने ही लगे, अदृश्य के भी भोक्ता हो गये। संसार तो तुम्हारा है ही, परमात्मा भी तुम्हारा हो गया। सब तुम्हारा हो गया! लेकिन सब तुम्हारा तभी होता है जब तुम बिलकुल गलित हो जाते हो, तुम बचते ही नहीं। ___ यही दुविधा है। तुम जब तक हो, कुछ भी तुम्हारा नहीं; जब तुम नहीं, तब सब तुम्हारा। वह अनिर्वचनीय दशा है-उपनिषद जिसकी तरफ दशारा करते हैं, गीताएं जिसका गीत गाती, कुरान जिस तरफ इंगित करता, बाइबिल जिस तरफ ले चलने के लिए मार्गदर्शिका है, और सारे ज्ञानियों ने उसी की यात्रा पर तुम्हें पुकारा है, चुनौती दी है। ये जो अष्टावक्र के सूत्र हैं, इन्हें तुम ऐसा मत समझ लेना कि कुछ थोड़ी जानकारी बढ़ गयी, समाप्त हुई बात। नहीं, इससे तुम्हारा जीवन बढ़े, जानकारी नहीं, तुम्हारा अस्तित्व बढ़े, तो ही समझना कि तुमने सुना। तुम्हारा अस्तित्व फैले। तुम विराट हो, तुम्हें उसकी याद आये। यह सारा आकाश तुम्हारा है : तुम्हें उसकी स्मृति आये। तुम सम्राट हो। उसका बोधमात्र-और सारा भिखमंगापन सदा के लिए समाप्त हो जाता है। बीच जल में कंपकंपाती हैं लौह सांकल में बंधी नावें! एक हमला रोज होता है काठ की कमजोर पीठों पर 220 अष्टावक्र: महागीता भाग-4 |
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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