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________________ बैठे हो और जो रोशनी सब तरफ झर रही है, उससे तुम्हारा संपर्क नहीं है। बुद्ध से किसी ने पूछा कि ज्ञानी और अज्ञानी में फर्क क्या है ? तो बुद्ध ने कहा, पलक मात्र का। सुनते हो! पलक मात्र का! पलक झपक गई — अज्ञानी । पलक खुल गई— ज्ञानी । इतना ही फर्क है। अंतस्तल पर जाग गये - सब जैसा होना चाहिए वैसा ही है। तुम तमोमय नहीं हो, ज्योतिर्मय हो ! रस से तुम भरे ही हो। रस के सागर हो । गागर भी नहीं । गागर तो तुम शरीर के कारण अपने को मान बैठे हो। रस के सागर हो। जिसकी कोई सीमा नहीं, जो दूर अनंत तक फैलता चला गया है - वही ब्रह्म हो तुम! तत्वमसि ! रसो वै सः ! दूसरा प्रश्न: आपने कहीं कहा है कि अत्यंत संवेदनशील होने के कारण आत्मज्ञानी को शारीरिक पीड़ा का अनुभव तीव्रता से होता है; लेकिन वह स्वयं को उससे पृथक देखता है। क्या ऐसे ही आत्मज्ञानी को किसी मानसिक ति दुख का अनुभव भी होता है ? कृपया समझायें ! पा रहा है। पलक उठाने ब्बत का महासंत मिलारेपा मरणशय्या पर पड़ा था। शरीर में बड़ी पीड़ा थी । और किसी जिज्ञासु ने पूछा : 'महाप्रभु ! क्या आपको दुख हो रहा है, पीड़ा हो रही है ?' मिलारेपा ने आंख खोली और कहा : 'नहीं, लेकिन दुख है ।' समझे? मिलारेपा ने कहा कि नहीं, दुख नहीं हो रहा है, लेकिन दुख है। दुख नहीं है, ऐसा भी नहीं। दुख हो रहा है, ऐसा भी नहीं। दुख खड़ा है, चारों तरफ घेर कर खड़ा है और हो नहीं रहा । भीतर कोई अछूता, पार, दूर जाग कर देख रहा है। ज्ञानी को दुख छेदता नहीं। होता तो है। दुख की मौजूदगी होती है तो होती है। पैर में कांटा गड़ेगा तो बुद्ध को भी पता चलता है । बुद्ध कोई बेहोश थोड़े ही हैं। तुमसे ज्यादा पता चलता है, क्योंकि बुद्ध तो बिलकुल सजग हैं। वहां तो ऐसा सन्नाटा है कि सुई भी गिरेगी तो सुनाई पड़ जायेगी । तुम्हारे बाजार में शायद सुई गिरे तो पता भी न चले। तुम भागे जा रहे हो दूकान की तरफ, कांटा गड़ जाये, पता न चले- - यह हो सकता है । बुद्ध तो कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। कोई दूकान नहीं है। कांटा गड़ेगा तो तुमसे ज्यादा स्पष्ट पता चलेगा। कोरे कागज पर खींची गई लकीर! तुम्हारा कागज तो बहुत गुदा, गंदगी से भरा है; उसमें लकीर खींच दो, पता न चलेगी; हजार लकीरें तो पहले से ही खिंची हैं। शुभ्र 6 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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