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________________ स्वर्ग में भी रहे तो भी नर्क में रहोगे। और ऐसे महाशय भी हैं कि उनको नर्क में भी डाल दो तो भी स्वर्ग में रहेंगे। उनका स्वर्ग उनके भीतर है। . जिस सुख की लालसा से तुम धार्मिक होने की चेष्टा करते हो वह सुख कहीं और नहीं है। वह लोभ के अंत में नहीं है। वह लोभ के पूर्व है, लोभ के बाद में नहीं। लोभ गिर जाये तो अभी है। ____ अचुनाव का अर्थ होता है : तुम कर्ता न रहो। तुम कौन हो? तुम क्या कर पाओगे? तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है! न जन्म तुमने लिया, न मौत तुम कर पाओगे, न जीवन तुम्हारा है। श्वास जब तक आती, आती; न आयेगी तो क्या करोगे? एक श्वास भी तो न ले पाओगे जब न आयेगी। न आयी तो न आयी। तुम्हारा होना तुम्हारे हाथ में है? तुम इसके नियंता हो? इस छोटे-से सत्य को समझ लो कि तुम इसके नियंता नहीं। तुम्हारा होना तुम्हारी मालकियत नहीं है। तुम क्यों हो, इसका भी तुम्हें पता नहीं है। तुम क्या हो, इसका भी तुम्हें पता नहीं है। तो जिसने तुम्हें जन्म दिया और जो तुम्हारे जीवन को अभी भी संभाले हुए है; जो तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है और एक दिन श्वास नहीं लेगा-वही है! उसी पर सब छोड़ दो। तुम कर्ता न रहो, तो चुनाव समाप्त हो गया। __ अब प्रश्न तुमने पूछा है कि यदि अहंकार अचुनाव का निर्णय कर ले, तो क्या होगा? अहंकार तो निर्णय कर ही नहीं सकता। अगर करे भी तो अहंकार का निर्णय अचुनाव नहीं हो . सकता। वह तो निर्णय ही इसलिए करेगा कि 'अचुनाव के पीछे लोग कह रहे हैं, बड़ा रस भरा है, .आनंद भरा है, ब्रह्म-रस बह रहा है। चलो, लूट लो इसको। कर लो अचुनाव।' यह तो चुनाव ही हुआ। अचुनाव का चुनाव कर लो! मगर यह चुनाव ही हुआ। ___इस भेद को खूब गहरे में समझ लेना। यह जो विराट अस्तित्व चल रहा है: चांद-तारे, सूरज, यह इतना जो गहन विस्तार है, जो इसे चला रहा है, वह तुम्हारे छोटे-से जीवन को न चला पायेगा? इतना विराट संभला है, तुम नाहक मेहनत कर रहे हो खुद को संभालने की। जिसके सहारे सब संभला । है उसके सहारे तुम भी संभले हुए हो। लेकिन तुम बीच-बीच में सोचकर अपने लिए बड़ी चिंता पैदा कर रहे हो कि क्या होगा, क्या नहीं होगा? मैं मर जाऊंगा तो क्या होगा? मैं अगर न रहा तो दुनिया का क्या होगा?' ऐसी चिंता करनेवाले लोग भी हैं। तुम्हारे बिना कोई कमी न पड़ेगी। तुम नहीं थे तब भी दुनिया थी। तुम नहीं रहोगे, तब भी दुनिया होगी। सब ऐसे ही चलता रहेगा। तुम्हारे होने से रत्ती भर भेद नहीं पड़ता, तुम्हारे न होने से भेद नहीं पड़ता। तुम तो एक तरंग मात्र हो। सागर पर एक तरंग को यह खयाल आ जाये कि अगर मैं न रही । तो सागर का क्या होगा? तो वह तरंग पागल हो जायेगी। तरंग के न रहने से सागर का क्या होता है ? सारी तरंगें भी शांत हो जायें तो भी सागर होगा। और तरंग है भी नहीं-सागर ही है। सागर ही तरंगायित है। सब लहरें सागर की हैं। तुमने एक बात खयाल की, सागर तो बिना लहरों के हो सकता है, लेकिन लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं! यह अस्तित्व तो मेरे बिना था, मेरे बिना होगा। लेकिन मैं इस अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता, एक क्षण नहीं हो सकता। तो निश्चित ही मेरा होना अलग-थलग नहीं है। मैं इस विराट के साथ एक हूं, इसी की एक तरंग हूं! तू स्वयं मंदिर है 193
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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