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यह किस तरह के रुग्ण लोगों की जमात है! इसमें तुम असहज की पूजा करते हो और सहज का तुम्हें पता ही नहीं चलता।
किसी ने पूछा है कि अष्टावक्र ने इतना महत्वपूर्ण ग्रंथ जगत को दिया, लेकिन उनका संप्रदाय क्यों नहीं बना? अष्टावक्र का संप्रदाय तभी बन सकता है जब जगत में स्वस्थ लोग होंगे। अस्वस्थ लोगों में अष्टावक्र का संप्रदाय बन नहीं सकता। क्योंकि अष्टावक्र कहते हैं : 'खाओ, पीओ, सूंघो, स्पर्श करो! जो सहज है वैसे जीओ। न यहां असहज, न वहां असहज। साक्षी भर रहो।'
तुम कहोगेः 'साक्षी! इसमें तो बड़ा धोखा है। क्या पता यह आदमी साक्षी हो या न हो। मजे से खा रहा है, सो रहा है, बैठ रहा है और कहता है, हम साक्षी हैं! इसका पक्का क्या? ऐसे तो कुछ पता चलता नहीं। साक्षी तो भीतर है, बाहर कैसे पता चले?' तुम्हें बाहर प्रमाण चाहिए कि कोई आदमी साधु हुआ कि नहीं। और प्रमाण क्या है? तुम जो कर रहे हो उससे विपरीत करे तो प्रमाण है। तुम पागल हो। वह तुमसे विपरीत दिशा में पागल हो जाए तो प्रमाण है। .
इस सूत्र का एक और अर्थ भी हो सकता है-इससे भी ज्यादा गहरा। कृतार्थः अनेन ज्ञानेन इति एवम् गलितधीः कृती।
-मैं अद्वैत आत्मज्ञान द्वारा कृतार्थ हुआ हूं, ऐसी बुद्धि भी जिस ज्ञानी को उत्पन्न नहीं होती, वही कृतकार्य हुआ, वही कृतार्थ हुआ।
फिर वह देखता हुआ देखता, सुनता हुआ सुनता, स्पर्श करता, सूंघता, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है। . इस वचन का यह अर्थ भी हो सकता है कि जिसको यह भाव भी नहीं उठता अब कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं-जिसकी ऐसी बुद्धि भी गलित हो गई।
कृतार्थः अनेन ज्ञानेन इति एवम् गलितधीः कृती। -ऐसी बुद्धि भी नहीं रही अब भीतर कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं।
क्योंकि जिसको ऐसी बुद्धि हो भीतर कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया, अभी द्वंद्व और द्वैत के बाहर नहीं गया। अभी अज्ञानी और ज्ञानी में फर्क बना है। अभी वह कहेगा, तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए, मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं। तो अभी 'मैं' मिटा नहीं। 'मैं' ने नया रूप ले लिया। कल कहता था, तुम गरीब हो, मैं अमीर हूं; तुम गैर-पढ़े-लिखे, मैं पढ़ा-लिखा; तुम कुरूप, मैं सुंदर; तुम कमजोर, मैं सबल। अब कहता है, मैं ज्ञानी, आत्मज्ञानी; तुम अज्ञानी। मगर फर्क बना हुआ है। मैं-तू का फर्क मौजूद है।
इसलिए दूसरा अर्थ और भी गहरा है। पहला ठीक; दूसरा बहुत-बहुत ठीक। ऐसी बुद्धि भी अब पैदा नहीं होती। उपनिषद कहते हैं : जो कहे कि मैंने जान लिया, जानना कि अभी जाना नहीं। क्योंकि ज्ञानी यह भी घोषणा नहीं करेगा कि मैंने जान लिया। यह घोषणा भी अस्मितापूर्ण है। ज्ञानी तो इतना भी नहीं कहेगा कि पा लिया। क्योंकि फिर भेद खड़ा हो गया जिन्होंने नहीं पाया, उनसे हम ऊपर हो गये। फिर हमने खड़ी कर ली पुरानी धारणा। अब दूसरे नीचे रह गये, अब हम ऊपर हो गये। पहले धन के कारण ऊपर थे, अब आत्मज्ञान के कारण ऊपर हो गये। लेकिन अहंकार नये खेल रचाने लगा, नयी लीला करने लगा।
शन्य की वीणा : विराट के स्वर
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