SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वासना अभी भी मंडराती है; बस इससे छुटकारा हो जाये तो मुझे कुछ नहीं चाहिए। कोई लोभ से पीड़ित है, कोई मोह से पीड़ित है, किसी की और समस्याएं हैं। लेकिन अधिकतर ऐसा होता है कि जब भी कोई एक समस्या लेकर आता है तो वह एक खबर दे रहा है - वहं खबर दे रहा है कि वह सोचता है : समस्या एक है। एक दिखाई पड़ रही है अभी पीछे लगी कतार तुम्हें तभी दिखाई पड़ेगी जब यह एक हल हो जाये। क्यू लगा है। तो तुम किसी तरह क्रोध को हल कर लो, तो तुम अचानक पाओगे कि कुछ और पीछे खड़ा है। क्रोध ने नया रूप ले लिया, नया ढंग ले लिया। पश्चिम में मनस्विद इसी चेष्टा में संलग्न हैं: एक-एक समस्या को हल कर लो। जैसे कि समस्याएं अलग-अलग हैं! वैसी दृष्टि ही गलत है। सब समस्याएं इकट्ठी जुड़ी हैं - एक जाल है । देखा मकड़ी का जाला? एक धागे को हिला दो, पूरा जाल हिलता है ! ऐसा समस्याओं का जा है, संयुक्त है। क्रोध लोभ से जुड़ा है, लोभ मोह से जुड़ा है, मोह काम से जुड़ा है— सब चीजें संयुक्त हैं। तुम एक को हल न कर पाओगे। एक को हल करने चलोगे, कभी न हल कर पाओगे, क्योंकि अनेक हैं समस्याएं; एक - एक करके चले, कभी हल न होगा। यह तो ऐसा ही होगा जैसे कोई चम्मच चम्मच पानी सागर से निकाल कर सागर को खाली करने की चेष्टा करता हो। यह तो तुमने बहुत छोटा मापदंड ले लिया। इस विराट को तुम हल न कर पाओगे। इसलिए पूरब ने एक नयी दृष्टि खोजीः क्या कोई ऐसा उपाय है कि हम सारी समस्याओं को एक झटके में समाप्त कर दें। इंच-इंच नहीं, टुकड़ा टुकड़ा नहीं, पूरी समस्या को हल कर दें। समस्या मात्र उखड़ जाये। लहर से न लड़ें; उस हवा को ही बहना बंद कर दें, जिसके कारण हजारों लहरें उठती हैं। वही सूत्र है साक्षी का तुम समस्याओं को हल मत करो; तुम समस्याओं के पीछे खड़े हो जाओ । तुम बस देखो। तुम्हारी दृष्टि अगर थिर हो गयी तो समस्याएं गिर जायेंगी। क्योंकि समस्याएं पैदा होती हैं तुम्हारी दृष्टि की अथिरता से । तुम्हारी दृष्टि का कंपन ही समस्याओं को पैदा करता है। तो गहरे में एक ही समस्या है कि तुम अंधे हो। गहरे में एक ही समस्या है कि तुम्हारी दृष्टि थिर नहीं। गहरे में एक ही समस्या है कि तुम्हारी आंखों में अंधेरा है, या तुमने पलक खोलने की कला नहीं सीखी। उस एक को हल कर लो। तो पूरब में हम कहते हैं : 'एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये ।' यह सदियों की अनुभूति का निचोड़ है इन सीधे-सादे वचनों में: एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये। तो तुम खंड-खंड मत साधना, नहीं तो कभी जीत न पाओगे; पत्ती-पत्ती मत काटना, अन्यथा वृक्ष कभी गिरेगा नहीं । जड़ को काट डालना। जड़ है अहंकार। जड़ है तादात्म्य | जड़ है इस बात में कि मैंने मान रखा है कि मैं देह हूं, जो कि सच नहीं। मैं देह नहीं हूं। मैंने मान रखा है कि मैं मन हूं, जो कि सच नहीं है। इन झूठों की मान्यताओं के कारण फिर हजार झूठों की कतार खड़ी हो गयी है। तुम मूल झूठ को हटा लो, तुम आधारशिला को खींच लो - यह ताशों का भवन जो खड़ा है, तत्क्षण गिर जायेगा। तुम से जूझ लो। तुम अनेक से मत लड़ो। यह अनेक गुरियों के बीच पिरोया हुआ एक ही धागा है। तुम एक-एक गुरिये से सिर मत मारो। तुम उस एक धागे को खींच लो, यह माला बिखर जायेगी । यह माला बचेगी नहीं। और तुम एक-एक गुरिये से लड़ते रहे और भीतर का धागा मजबूत रहा, तो तुम जीत न पाओगे। गुरिये अनंत हैं। तुम्हारी सीमा है। तुम्हारा समय है। तुम्हारी क्षमता... । गुरिये अनंत 144 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy