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बुढ़ापे का सौंदर्य ऐसा है जैसे तूफान आया और चला गया; और तूफान के बाद जो शांति हो जाती है, जो गहन शांति छा जाती है। कभी देखा, बादल घुमड़े, आंधी आयी, बिजली चमकी, फिर सब चला गया। उसके बाद जो विराम होता है ! सब चुप! सारी प्रकृति मौन ! वैसी ही शांति बुढ़ापे की है।
अगर स्वीकार कर लो तो बुढ़ापे में प्रसाद है। वह जो बूढ़े आदमी के सिर के सफेद हो गये बाल हैं, अगर उनको परिपूर्ण भाव से अंगीकार किया गया हो तो जैसे हिमालय के शिखरों पर जमी हुई सफेद बर्फ होती है, ऐसा ही उनका सौंदर्य है।
तो बुढ़ापा तो रहेगा, तुम चाहे इनकार करो चाहे स्वीकार करो। इनकार करने से इतना ही हो जायेगा - एक तनाव फैल जायेगा बुढ़ापे पर, एक विकृति आ जायेगी, दरारें पड़ जायेंगी बुढ़ापे में । बुढ़ापा और भी कुरूप हो जायेगा, बदतर हो जायेगा। जब मैं तुमसे कहता हूं, जो है उसे स्वीकार करो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अगर स्वीकार करोगे तो उसे बदल पाओगे। बदल तो कोई कभी नहीं पाया। बदलाहट तो होती ही नहीं। और अगर कोई बदलाहट होती है तो स्वीकार से होती है। क्योंकि दंश चला जाता है, विष चला जाता है और अमृत हो जाता है।
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प्राण में जब क्लांति, जीवन में थकन जब व्यापती है। स्वप्न सारे टूट कर उड्डीण हो जाते रूख के पत्ते यथा पतझाड़ में
स्वप्न मेरे भी चतुर्दिक टूट कर उड़ने लगे हैं और मैं दुबली भुजाओं पर उठाये
रसो वे सः
व्योम का विस्तार, एकाकी खड़ा हूं
इस भरोसे में नहीं कि कोई बड़ा पुरुषार्थ है यह
किंतु केवल इसलिए अब और चारा ही नहीं है ।
फिर स्वीकार में एक बात और खयाल रखना । स्वीकार का यह अर्थ नहीं होता कि अब और कोई चारा ही नहीं है। तो फिर स्वीकार नहीं है । फिर तो मजबूरी है। फिर तुमने धन्यभाव से स्वीकार न किया ।
'जिस स्वीकार में स्वागत नहीं है, उसे तुम स्वीकार मत समझ लेना । जब मैं स्वीकार कहता हूं तो स्वीकार का प्राण है स्वागत । स्वीकार का अर्थ ही है कि 'मैं धन्यभागी हूं, कि प्रभु तुमने बुढ़ापा भी दिया! तुमने सौंदर्य की आंधी भी दी जवानी में, तुमने यह बुढ़ापे का शांत प्रसादपूर्ण सौंदर्य भी दिया, यह गरिमा भी दी ! बचपन की अबोध दशा दी, जवानी की बोध और अबोध की मिश्रित दशा दी ; यह बुढ़ापे का शुद्ध बोध भी दिया !
अगर जीवन ऐसे स्वीकार-भाव से चले, जो मिले उसे स्वीकार कर ले, गहरा धन्यवाद हो भीतर, तो तुम पाओगे : तुम्हारे हाथ में एक कुंजी लग गयी जो सभी बंद द्वारों को खोल लेगी। जीवन का कोई रहस्य तुमसे छिपा न रह जायेगा। नाहक सिर मारने से, शोरगुल मचाने से कुछ भी नहीं होता। शोरगुल मचाने वाला अगर किसी दिन स्वीकार भी करता है तो वह हारा-थका । कहता है : ठीक है, अब कोई चारा ही नहीं है ।
हमारे पास एक शब्द है 'समर्पण'। अंग्रेजी में भी शब्द है 'सरेंडर', लेकिन समर्पण का ठीक-ठीक पर्यायवाची नहीं है। मुझे बड़ी अड़चन होती है जब मैं पश्चिम से आये किसी खोजी को समर्पण
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