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________________ अपने को खोजो । खोजने की यों जरूरत नहीं है, क्योंकि जिसे खोजना है वह तुम्हीं तो हो । खोजोगे किसे? अपने को पहचानो। और इसके लिए वे दो मार्ग बतलाते हैं। दो ही तो मार्ग हैं, जो अलग दीखते हैं, पर पहुंचाते हैं एक ही मंजिल पर, अस्तित्व के शिखर पर ! एक है प्रेम का मार्ग, दूसरा है ध्यान का मार्ग । प्रेम के शिखर पर 'सर्व' में 'स्व' का विसर्जन, और ध्यान के शिखर पर 'सर्व' का 'स्व' में विसर्जन — दोनों ही अवस्थाओं में अद्वैत हो जाना है, आत्म-भाव में शून्य हो जाना है— केवल द्रष्टा, सिर्फ साक्षी - भाव; कर्ता कदापि नहीं। फिर यह संसार सुख-दुःख, हानि-लाभ, शत्रु-मित्र, यश- अपयश, मेरा-तेरा, सब निरर्थक हो जाते हैं, व्यावहारिक जगत में चाहे ये सब यथावत विद्यमान रहें। उन्होंने आत्मवादी उपनिषद और अनात्मवादी बौद्धदर्शन का; लीलापुरुष कृष्ण, मीरा आदि की भक्ति; पतंजलि का योग; कबीर, दादू आदि संतों की वाणियों का प्रभूत विश्लेषण प्रस्तुत कर समग्र भारतीय मनीषा का अपूर्व और अदभुत संश्लेषण प्रस्तुत किया है। ऐसी प्रचंड मेधा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं। और इन सब वादों के बीच कमलपत्रमिवामसा रजनीश, मुझे लगता है कि अधिक झुके हैं। पतंजलि, महावीर, बुद्ध, कबीर और अष्टावक्र की ओर। यह स्वाभाविक भी है। यह युग है विज्ञान, तर्क, प्रयोग का । प्रेम के मार्ग में ये ही सब बाधाएं हैं। योग और ध्यान का मार्ग बिलकुल विज्ञान का मार्ग है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएं भी इसका प्रमाण हैं, जो हैं : ताओ उपनिषद, महावीर वाणी, जिन - सूत्र, एस धम्मो सनंतनो, योग-दर्शन, गीता-दर्शन, अनेकानेक संतों की वाणियों पर प्रवचन और प्रस्तुत कृति अष्टावक्र की महागीता ! अष्टावक्र की महागीता । महाभारत के युद्ध में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया हुआ कर्मक्षेत्र में कर्म में निष्काम प्रेरित करने के उपदेश को पाठक अधिक जानते हैं। यह अष्टावक्र और विदेहराज जनक. के बीच का संवाद है। कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद नहीं, विवाद है; अर्जुन को संदेह है, वह नई-नई शंकाएं उठाता है, कृष्ण तरह-तरह से उसका समाधान करते हैं। किंतु यहां सुननेवाला जनक विदेहराज है, उसके मन में कहीं कोई संदेह नहीं है। यहां गुरु और शिष्य के बीच गहरा संवाद है। जनक स्वयं ‘गलितधिः’ है, ज्ञान के अनुभव से अपनी बुद्धि को गलित पाकर वह ऐसा कृतकार्य पुरुष हो गया है, जो सब कुछ देखता हुआ, सब कुछ सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुखपूर्वक रहने वाला विदेहराज जनक है ! अष्टावक्र एक अदभुत, टेढ़े - शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों अर्थों में- व्यक्तित्व का नाम है। इनकी कथा, महाभारत, विष्णु पुराण, ब्रह्मांड पुराण आदि ग्रंथों में मिलती है। वे उपनिषद के प्रसिद्ध ऋषि उद्दालक की पुत्री सुजाता के पुत्र और श्वेतकेतु के भांजे थे। इनके पिता कहोड़ पठन-पाठन में व्यस्त रहने के कारण अपनी पत्नी सुजाता का विशेष ध्यान नहीं रखते थे । अष्टावक्र को शास्त्र - ज्ञान विरासत में मिला था। जब ये गर्भ में थे तभी इन्होंने अपने पिता कहोड़ का उनके शास्त्र - ज्ञान में त्रुटि की ओर ध्यान दिला दिया । पिता ने अपने को अपमानित अनुभव कर इन्हें शाप दे कर इनके अंग टेढ़े कर दिए। आठ अंगों से टेढ़े होने के कारण ही इनका नाम अष्टावक्र पड़ गया। कहोड़ जनक की सभा में शास्त्रार्थ में एक बौद्ध पंडित बंदी से हार जाने के कारण नदी में डुबो दिए गए। यह समाचार सुन कर बारह वर्षीय बालक अष्टावक्र जनक की सभा में पहुंच गए और बंदी को शास्त्रार्थ में पराजित कर
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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