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________________ कोशिश करता है, कि बस बच्चे में कोई स्वतंत्रता न हो। इसलिए हम आज्ञाकारिता को बड़ा मूल्य देते हैं। आज्ञाकारिता का अर्थ : 'तुम अपने जैसे मत होना; हम जैसे कहें वैसे होना !' तुम्हारे बाप तुम्हें मार गये, तुम इनको मार डालना। ये अपने बेटों को मारेंगे। ऐसे सदियां सदियां, पीढ़ियां एक-दूसरे को मारती चली जाती और आदमी बिलकुल मुर्दा है। पीछा ही नहीं छूटता । अगर तुम्हें बच्चे से प्रेम है, सच में प्रेम है, तो तुम बच्चे को स्वीकार करोगे कि तेरी स्वतंत्रता स्वीकार है, अंगीकार है। और यह अन्याय तुम न करोगे क्योंकि तुम जरा ताकतवर हो तो इसकी गर्दन घोट दो। खलील जिब्रान ने कहा है : प्रेम देना, मगर अपने सिद्धांत मत देना । प्रेम देना, मगर अपना शास्त्र मत देना। प्रेम करना, लेकिन स्वतंत्रता मत छीन लेना। क्योंकि स्वतंत्रता छीन ली तो प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम का सबूत ही एक है : स्वतंत्रता । प्रेम दूसरे को स्वीकार करता है अपने ही जैसा । प्रेम दूसरे में अपने को ही देखता है। अपने को तो तुम सदा स्वतंत्र देखना चाहते हो या नहीं ? अपने को तो तुम चाहते हो परम स्वातंत्र्य मिले। तो जिससे तुम्हारा प्रेम है उसको भी तुम परम स्वतंत्रता देना चाहोगे। मगर हम हजार तरह से . मिटाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम डरे हुए हैं। इसके पहले कि हमने अगर न मिटाया, कहीं दूसरा हमें न मिटाने लगे ! कहीं दूसरा हमारी छाती पर सवार न हो जाये! हम कंप रहे हैं। हमारे कंपन का कारण क्या है ? क्योंकि दूसरा है। और दूसरे को मिटाने का एक उपाय तो यह है कि दूसरे की गर्दन दबा दो । एक तो उपाय हिटलर का है कि मार डालो दूसरे को, मिटा दो बिलकुल, हत्या कर दो; न रहेगा दूसरा, न दूसरे की कोई अड़चन रहेगी। एक उपाय बुद्ध का है कि दूसरे में झांक कर देख लो और अपने को ही पा लो । न तो मिटाना पड़ता है, न हिंसा करनी पड़ती है, न विध्वंस करना पड़ता है। दूसरे में अपनी ही झलक मिल जाती है । फिर दूसरा नहीं रह गया। और जिसके जीवन में दूसरा नहीं रहा - अष्टावक्र कहते हैं—उसके जीवन में खेद नहीं रहा, उसके जीवन में कोई दुख न रहा। 1. अगर तुम इस एक की हवा को थोड़ा चलने दो, तुम्हारे जीवन में वसंत आ जाये, तुम्हारे जीवन बड़ी सुरभि आ जाये ! . चल पड़ी चुपचाप सन सन सन हुआ डालियों को यों चितानी-सी लगी आंख की कलियां अरी खोलो जरा हिल स्व- पत्तियों को जगानी - सी लगी पत्तियों की चुटकियां झट दीं बजा सहज ज्ञान का फल है तृप्ति 103
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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