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________________ है। जो नहीं कहना है, कहना पड़ता है। जो भीतर की सरलता और सहजता है, उसे रोकना पड़ता है। और हम भीड़ में ही जीते हैं चौबीस घंटे, तो धीरे-धीरे हमें अपना वास्तविक चेहरा ही भूल जाता है; यही मुखौटे याद रह जाते हैं। दफ्तर जाओ तो मालिक के सामने एक मुखौटा ओढ़ो।। तुमने खयाल किया कि जब तुम दफ्तर जाते हो और चपरासी को पार करते हो, तब तुम एक मुखौटा ओढ़े होते हो चपरासी के पास से गुजरते वक्त! और जब मालिक के कमरे में प्रवेश करते हो, तत्क्षण मुखौटा बदला! अब तो प्रक्रिया इतनी यंत्रवत हो गई है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता; जैसे आदमी, होशियार ड्राइवर, गेयर बदलता है, कुछ पता नहीं चलता, बैठने वाले यात्री को भी पता नहीं चलता। तुम गेयर बदलते रहते हो। चेहरा बदल लिया। चपरासी के पास से ऐसे अकड़ कर निकले थे जैसे वह कोई तुच्छ कीड़ा-मकोड़ा है। तब एक चेहरा था। मालिक के सामने खुद ही कीड़े-मकोड़े हो गये, पूंछ हिलाने लगे। एकदम चेहरा बदल लिया। मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक आदमी मिलने आया। नसरुद्दीन को पता नहीं, कौन हैं। तो उसने यह भी नहीं कहा कि बैठिए। हर किसी से तो कोई नहीं कह देता कि बैठिए। लोग तो हिसाब से चलते हैं। उस आदमी ने कहा. शायद आपको पता नहीं कि मैं कांग्रेस का नेता हं. एम. पी. हं। मल्ला ने कहा : 'अरे बैठिए, कुर्सी पर बैठिए।' उठ कर खड़ा हो गया। 'आइये, बड़ी खुशी हुई!' वह आदमी बोला कि आपको यह भी पता नहीं कि शीघ्र ही मैं कैबिनेट में लिया जाने वाला हूं। तो मुल्ला ने कहा 'अरे दो कुर्सी पर बैठिए! एक से कैसे काम चलेगा!' . आदमी को देख कर चौबीस घंटे हम चेहरे बदलते हैं। घर आये तो पत्नी को देख कर एक चेहरा, बेटे को देखकर एक चेहरा। इन सब चेहरों की भीड़ में हमें भूल ही जाता है कि असली चेहरा क्या झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं : सबसे पहले अपना असली चेहरा खोजो, ओरिजिनल फेस! तब काम शुरू होगा। ये झूठे चेहरों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि झूठे चेहरों से तुम परमात्मा तब नहीं पहुंच सकते हो। असली चेहरा खोजो। असली चेहरा-जो जन्म के पहले तुम्हारे पास था और मौत के बाद फिर तुम्हारे पास होगा! यह बीच की भीड़ हटाओ। असली चेहरा! असली चेहरा तो सिर्फ एकांत में ही खुलता है। लेकिन हम एकांत को बिलकुल भूल गये हैं और परम एकांत तो तभी उपलब्ध होता है जब हमें यह पता चल जाये कि एक ही है। फिर कोई चेहरा नहीं बदलना पड़ता। इसलिए संत पुरुष बालवत हो जाता है, छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। यहां कोई दूसरा है ही नहीं, छिपाना किससे है! बचाना किससे है! धोखा किसको देना, कपट किससे करना! कूटनीति कैसी! राजनीति कैसी! यहां एक ही है। ___यह तो ऐसे हुआ कि अपने बायें हाथ से दायें हाथ को कोई धोखा दे। ऐसे लोग भी हैं कि बायें हाथ से दायें हाथ को धोखा दे लें। तुमने कभी किसी को ट्रेन में देखा। मैं अक्सर यात्रा करता था तो मुझे कई दफे ऐसा मौका आ जाता कि सज्जन अकेले ही ताश खेल रहे हैं, दोनों तरफ से चाल चल रहे हैं और इसमें भी सोच रहे हैं कि जीत-हार होगी। अब हद हो गई। अब तम्हीं खेल रहे हो दोनों तरफ से. तम्हें दोनों चालें पता हैं-तुम किसको धोखा दे रहे हो? और बायां हाथ जीता कि दायां हाथ जीता, क्या फर्क पड़ेगा! कौन सहज ज्ञान का फल हे तृप्ति . . 101 -
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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