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________________ और जब यह यात्रा शून्य में बढ़ने की हो तो मुखौटों और बैसाखियों को तो छोड़ ही देना पड़ता है। जैसा कि रजनीश बारबार कहते रहे हैं, 'अप्प दीवो भव'-अपना दीपक आप बन! ___ मैं रजनीश को इस युग का सबसे बड़ा दार्शनिक, अनुप्रायोगिक-दार्शनिक मानता हूं। मुझे उन्हें युग-युग का दार्शनिक कहने का अधिकार नहीं है। हर युग की अलग-अलग मान्यताएं होती हैं और मनुष्य जब तक मनुष्य है, भगवान नहीं बन जाता, तब तक उसे अपने युग की सीमाओं को मानना पड़ता है। रजनीश अपने युग की सीमाओं को बहुत कुछ पार कर चुके थे, इसीलिए आचार्य की सीमा लांघ कर वे भगवान भी हो गए थे। बौद्ध-दर्शन में भगवान से सृष्टिकर्ता का बोध नहीं होता, जैसा कि हिंदू, इस्लाम या इसाई धर्म में होता है। बौद्ध दर्शन में भगवान से अभिप्राय है उससे जो जाग गया हो, प्रबुद्ध हो गया हो। इसी अर्थ में बुद्ध भगवान हुए। उनका मूल नाम तो था गौतम! ज्ञान को प्राप्त होने पर ही उनका नाम हुआ बुद्ध। इसी अर्थ में रजनीश भी भगवान हुए। प्रत्येक मनुष्य जो भी जाग गया, ज्ञान को प्राप्त हो गया, वह बुद्ध हो जाता है; सहज ही भगवान हो जाता है। बुद्ध के प्रति इसीलिए रजनीश की उत्कट निष्ठा थी। पर भगवान की एक विशेषता भी है, वह तो अपने को इस दुनिया में कहीं सानता नहीं, वह तो केवल द्रष्टा है, द्रष्टा को क्या पड़ी कि वह मनुष्य के अहंकार को समाप्त करे? एक दूसरे स्तर पर वह लीलाधर भी है। ___ मैं समझता हूं, शायद इसीलिए भगवत्ता की सीमा पर पहुंच कर भी रजनीश ने मानव-कल्याण के लिए ही अपना भगवान विरुद वापिस ले लिया और वे पुनः ज़ोरबा दी बुद्धा और केवल मात्र ओशो बन गए। एक प्रवचन में वे कहते हैं, 'मैं साधारण आदमी हूं और मैं तुम्हें साधारण ही बना सकता हूं। मेरे जीवन में कुछ भी विशिष्ट नहीं है, विशिष्टता का आग्रह भी नहीं है। मैं बस तुम्हारे जैसा हूं। फर्क कुछ होगा तो इतना ही कि मुझे इससे अन्यथा होने की कोई आकांक्षा नहीं है। मैं परम तृप्त हूं, मैं राजी हूं, अहोभाव से भरा हूं, जैसा है, सुंदर है, सत्य है। जो भी हो रहा है, उससे इंच भर भिन्न करने की या होने की कोई आकांक्षा नहीं है। मेरे पास कर्ता का भाव ही नहीं है। अगर तुम भी द्रष्टा होने को राजी हो और कर्ता का तुम्हारा पागलपन छूट गया है, तो ही मेरे पास तुम्हारे जीवन में कोई सुगंध, कोई अनुभूति का प्रकाश फैलना शुरू होगा। अन्यथा तुम मुझे नहीं समझ पाओगे।' ___'दार्शनिक' शब्द भी रजनीश के पक्ष से बड़ा भ्रामक है। अंग्रेजी में इसका पर्याय फिलासफर तो और भी सीमित अर्थ का द्योतक है। वहां इसका अर्थ है, विचारों का प्रेमी! रजनीश के भक्त खूब जानते हैं कि रजनीश की ध्यान-साधना में विचार सबसे बड़े बाधक हैं। पौर्वात्य दार्शनिक का मूल 'दर्शन' है, जिसका बहुत कुछ संबंध है 'द्रष्टा' से। उपनिषद के युग तक इस शब्द का प्रायः यही अभिप्राय था, किंतु पाश्चात्य-संस्कृति के परिचय के बाद यह शब्द उसी पाश्चात्य अमिधा में ही प्रयुक्त होता है। हमारे विश्वविद्यालयों के दर्शन के प्रोफेसर प्रायः ही 'पात्र में घी है या घी में पात्र' की ऊहापोह वाले लतीफे की अच्छी खासी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। - इसीलिए मैंने रजनीश को अनुप्रायोगिक दार्शनिक कहा है, वे इस युग के ही नहीं, युगातीत के दार्शनिक हैं। वे सभी युगों के युग-पुरुषों को-कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, मुहम्मद-सबको अपने में समेटे हुए हैं। लाओत्से, वाजिद, गुरजिएफ, रिझाई, रूमी, कृष्णमूर्ति-सब उनके मुंह से बोलते हैं। कबीर, मीरा, दादू, नानक हों या सुकरात-मंसूर, यहां तक कि मुल्ला नसरुद्दीन भी उनसे
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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