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________________ एक है। भाषा चाहे थोड़ी अलग-अलग हो, लेकिन दोनों का बोध बिलकुल एक है। दोनों अलग-अलग छंद में, अलग-अलग राग में एक ही गीत को गुनगुना रहे हैं। इसलिए मैंने इसे महागीता कहा है। इसमें विवाद जरा भी नहीं है। ___कृष्ण को तो अर्जुन को समझाना पड़ा, बार-बार समझाना पड़ा, खींच-खींच कर, बामुश्किल राजी कर पाए। यहां कोई प्रयास नहीं है। अष्टावक्र को कुछ समझाना नहीं पड़ रहा है। अष्टावक्र कहते हैं और उधर जनक का सिर हिलने लगता है सहमति में। दोनों के बीच बड़ा गहरा अंतरंग संबंध है, बड़ी गहरी मैत्री है। इधर गुरु बोला नहीं कि शिष्य समझ गया। 'शब्द आदि ऐंद्रिक विषयों के प्रति राग के अभाव से और आत्मा की अदृश्यता से जिसका मन विक्षेपों से मुक्त होकर एकाग्र हो गया-ऐसा ही मैं स्थित हूं।' प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्यन: विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थित।। शब्दादे प्रीत्यभावेन:। 'शब्द आदि के प्रति जो प्रेम है, भाव है, उससे मैं मुक्त हो गया हूं।' शब्द में बड़ा रस है। शब्द का अपना संगीत है। शब्द का अपना सौंदर्य है। शब्द के सौंदर्य से ही तो काव्य का जन्म होता है। शब्द में जो बहता हुआ रस है, उसको ही एक श्रृंखला में बांध लेने का नाम ही तो कविता है। शब्द को अगर तुम गुनगुनाओ तो मीठे शब्द हैं, कड़वे शब्द हैं, सुंदर शब्द हैं, असुंदर शब्द हैं। कोई तुम्हें गाली दे जाता है, वह भी उसी वर्णमाला से बने अक्षरों का उपयोग कर रहा है। कोई तुमसे कह जाता है, मुझे तुमसे बड़ा प्रेम है, कोई धन्यवाद दे जाता है। इन सभी में एक ही वर्णमाला है-कोई गाली दे कि कोई तुम्हारी प्रशंसा करे। लेकिन कुछ शब्द हृदय पर अमृत की वर्षा कर देते हैं, कुछ शब्द काटे चुभा जाते हैं, कुछ घाव बना जाते हैं। शब्द की बड़ी पकड़ है, बड़ी जकड़ है आदमी के मन पर। हम शब्द से ही जीते हैं। तुम अगर गौर करो, किसी ने कहा, 'मुझे तुमसे बड़ा प्रेम है -तुम कैसे प्रफुल्लित हो जाते हो! और किसी ने हिकारत से कुछ बात कही, अपमान किया तो तुम कैसे दुखी हो जाते हो! शब्द सिर्फ तरंग है; इतना महत्वपूर्ण होना नहीं चाहिए, लेकिन बड़ा महत्वपूर्ण है। किसी ने गाली दी हो बीस साल पहले, लेकिन भूलती नहीं; चोट कर गई है, बैठ गई है भीतर, बदला लेने के लिए अभी भी आतुर हो। और किसी ने पचास साल पहले तुम्हारी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की हो अब भी तुम सर्टिफिकेट रखे बैठे हो। जिसने तुम्हें बुद्धिमान कहा हो, वह बुद्धिमान खुद भी चाहे न रहा हो, मगर उसकी कौन चिंता करता है! हम शब्द बटोरते हैं, हम शब्द से जीते हैं! T: शब्दादेः प्रीत्यभावेन-शब्द के प्रति वह जो मेरा राग है, वह मेरा गया। क्योंकि मैंने देख लिया: मैं शब्दातीत हूं! मैं शब्द के पीछे खड़ा हूं। शब्द तो ऐसे ही हैं जैसे हवा के झकोरे पानी में लहरें उठा जाते हैं। शब्द तो तरंग मात्र हैं, न अच्छे हैं न बुरे हैं। इसलिए अगर कोई दूसरा व्यक्ति किसी दूसरी भाषा में तुम्हें कुछ कहे, तो कुछ परिणाम नहीं
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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