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________________ है। आभूषण भी सौंदर्य को विकृत कर देते हैं। ये सीधे-सीधे वचन हैं, मगर ये सुंदरतम हैं। ये तुम्हारे हृदय में पहुंच जाएं तो सौभाग्य जनक ने कहा: पहले मैं शारीरिक कर्म का न सहारने वाला हुआ, फिर वाणी के विस्तृत कर्म का न सहारने वाला हआ और उसके बाद विचार का न सहारने वाला हुआ| इस प्रकार मैं स्थित हूं।' जनक कह रहे हैं : कायकृत्यासह पूर्वं ततो वाग्विस्तरासहः । अद्य चितासह स्तस्मादेवमेवाहमास्थितः।। इस सूत्र का अर्थ है कि देह चलती है-अपने कारण, मन चलता है-अपने कारण; वाणी चलती है-अपने कारण। तुम नाहक उससे अपने को जोड़ लेते हो। जोड़ने के कारण भ्रांति हो जाती है। मैंने सुना है कि एक सम्राट अपने घोड़े पर बैठ कर यात्रा को जाता था। राह पर लोग झुक झुक कर प्रणाम करने लगे। घोड़ा बिलकुल अकड़ गया। घोड़ा तो खड़ा हो गया। घोड़े ने तो चलने से इंकार कर दिया। पुराने जमाने की कथा है जब घोड़े बोला करते थे। सम्राट ने कहा : यह तुझे क्या हुआ? पागल हो गया? रुकता क्यों है? ठिठकता क्यों है? उसने कहा उतरो नीचे! मुझे अब तक पता ही नहीं था कि मैं कौन हू इतने लोग नमस्कार कर रहे हैं! नमस्कार हो रहा है सम्राट को; घोड़े ने समझा, मुझे हो रहा है! मैंने सुना है, एक महल में एक छिपकली वास करती थी। महल की छिपकली थी, कोई साधारण छिपकली तो थी नहीं! तो कुछ गाव में अगर छिपकलियों का कोई आयोजन इत्यादि हो, तो जैसा बुलाते हैं राष्ट्रपति को, प्रधानमंत्री को, ऐसा उसे उदघाटन इत्यादि के लिए बुलाते थे। लेकिन वह जाती नहीं थी; अपने सहयोगियों को भेज देती थी-उपराष्ट्रपति को भेज दिया! छिपकलियों ने पूछा कि देवी तुम क्यों नहीं आती हो? उसने कहा : मैं आ जाऊं तो यह महल गिर जाए। छप्पर को सम्हाले कौन? छिपकली छप्पर को सम्हाले हुए है हंसो मत! छिपकली को ऐसी भांति हो तो आश्चर्य नहीं; मनुष्य ऐसी भ्रांति में जीता है! शरीर अपने से चल रहा है, लेकिन तुम एक भ्रांति में पड़ जाते हो कि मैं चला रहा हूं। मन अपने से चल रहा है, लेकिन तुम भांति में पड़ जाते हो कि मैं चला रहा हूं। यह पहला सूत्र यह कह रहा है कि सबसे पहले तो मैंने यह जाना कि शरीर को मेरे सहारने की कोई आवश्यकता नहीं है; शरीर अपने ही सहारे चल रहा है। तो सबसे पहले मैं शारीरिक कर्म का न सहारने वाला हुआ मैंने यह भ्रांति छोड़ दी कि मैं चला रहा हूं। रात तुम सोते हो तब भी तो शरीर चलता रहता है, भोजन पचता रहता है; तुम्हारी जरूरत तो रहती नहीं। तुमने कभी किसी को कोमा में पड़े देखा हो, महीनों से बेहोश पड़ा है, तो भी खून बहता रहता, हृदय धड़कता रहता, श्वास चलती रहती; तुम्हारी कोई जरूरत तो नहीं है। तुम्हारे बिना भी तो सब
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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