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________________ धक्का नहीं दे सकते थे। तुम उसे गिरा नहीं सकते थे। तुम उसकी लयबद्धता को क्षीण नहीं कर सकते थे। वह हर हालत में अपनी लयबद्धता को पा लेता था। कैसी भी दशा हो, बरी हो भली हो, रात हो दिन हो, सुख हो दुख हो, सफलता-असफलता हो, इससे कोई फर्क न पड़ता था। उसके भीतर का संगीत अहर्निश बहता रहता था। बोधिधर्म का जापानी नाम है दारुमा। और उन्होंने एक गुड़िया बना ली है। तुमने गुड़िया देखी भी होगी। उस गुड़िया की एक खूबी है : उसे तुम कैसा ही फेंको, वह पालथी मार कर बैठ जाती है। उसकी पालथी बजनी है. भीतर लोहे का टुकड़ा रखा है, या शीशा भरा है और सारा शरीर पोला है। तो तुम कैसा भी फेंको, तुम चाहो कि सिर के बल गिर जाये दारुमा, वह नहीं गिरता। तुम धक्का मारो, ऐसा करो, वैसा करो, वह फिर अपनी जगह बैठ जाता है। यह गुडिया बड़ी अदभुत है बच्चों को शिक्षण देने के लिए कि तुम्हारा जीवन भी ऐसा हो जाए-दारुमा जैसा हो जाए। कुछ तुम्हें गिरा न पाये। तुम्हारी पालथी लगी रहे। तुम्हारा सिद्धासन कायम रहे। तुम्हारी छंदबद्धता बनी रहे। इसी को अष्टावक्र स्वच्छंदता कहते हैं। स्वच्छंदता का अर्थ उच्छंखलता मत समझ लेना। स्वच्छंदता का अर्थ है : स्वयं के छंद को उपलब्ध हो गये; स्वभाव के साथ एक हो गये; छंदबद्ध हो गये अपनी भीतर की आत्मा से। और जो भीतर है वही बाहर है, तो छंद पूरा हो गया। लयबद्ध हो गए, तुम्हारा सितार बजने लगा। तुमने अस्तित्व के हाथों में दे दिया अपना सितार; अस्तित्व की अंगुलियां तुम्हारे सितार पर फिरने लगी, गीत उठने लगा। 'तेरे ही अज्ञान से विश्व है। परमार्थत: तू एक है। तेरे अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है-न संसारी और न असंसारी।' तो कोई भेद मत करना। यह मत कहना कि यह संसारी है और यह संन्यासी है। इसलिए तुम देखते हो, मैंने सारा भेद छोड़ दिया है। ____ लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, संन्यास लेना है; लेकिन हम तो अभी संन्यासी होने के योग्य नहीं हैं। अभी घर में हैं, पत्नी-बच्चे हैं। मैं कहता हूं : तुम फिक्र छोड़ो। संन्यासी और संसारी में कोई भेद थोड़े ही है-एक ही है। इतना ही फर्क है कि संसारी अभी जिद किए है सोने की और संन्यासी जागने की चेष्टा करने लगा है। भेद थोड़े ही हैं। दोनों एक से ही हैं। संसारी सिर के बल खड़ा है, संन्यासी अपने पैर के बल खड़ा हो गया; मगर दोनों में कुछ फर्क थोड़े ही है। दोनों के भीतर एक ही परमात्मा, एक ही स्फूर्ति! तन के तट पर मिले हम कई बार पर दवार मन का अभी तक खुला ही नहीं। जिंदगी की बिछी सर्प-सी धार पर अश्रु के साथ ही कहकहे बह गये। ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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