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________________ देश में सदा ही सम्राट फकीर के सामने झुकता रहा है । छोड़े, आप चलें। सिर्फ औपचारिक ही सही । ' बात तो समझ में उसे आई; हिसाब की थी । पिता के साथ जो पाप किया है वह भी पुंछ जायेगा। लोग कहेंगे कि नहीं, ऐसा बुरा नहीं बुद्ध को सुनने भी गया, चरण भी छुए। तो वह चला। लेकिन जो आदमी पाप करता है, भयभीत होता है। वह अपने आमात्यों से भी डरा था। जो दूसरे को डराता है वह डरता भी है। जो दूसरे की हत्या करता है वह डरा भी होता है कि कोई उसकी हत्या न कर दे। जो दूसरे को चोट पहुंचाता है उसे आयोजन भी करने पड़ते हैं कि कोई उसे चोट न पहुंचा दे। तो वह डरा था। और जब बुद्ध के पड़ाव के पास पहुंचने लगा-वृक्षों की ओट में पड़ाव है-तो उसने अपने आमात्यों को कहा. 'सुनो, तुम कहते थे दस हजार भिक्षु वहां मौजूद हैं, आवाज जरा भी सुनाई नहीं पड़ती। कुछ धोखा मालूम पड़ता है कोई षड्यंत्र ।' उसने तलवार खींच ली। आमात्य हंसने लगे। उन्होंने कहा : ' आप नासमझी न करें। आपको बुद्ध का पता नहीं। आपको बुद्ध के पास बैठे दस हजार लोगों का भी पता नहीं। थोड़ा धैर्य रखें। कोई षड्यंत्र नहीं है, आप आयें।' वह नंगी तलवार लिए ही चला। जब तक उसने वृक्षों के पार जा कर देख न लिया कि दस हजार भिक्षु मौजूद हैं तब तक उसने तलवार भीतर न रखी। फिर बुद्ध से उसने जो पहला प्रश्न पूछा वह यही था कि मैं तो बड़ा हैरान हो रहा हूं । दस हजार लोग बैठे हैं, बाजार मच जाता है, कीचड़ मच जाती है, बड़ा शोरगुल होता है- ये चुप क्यों बैठे हैं? तो बुद्ध ने कहा 'एक शून्य हो कि दस हजार, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता । शून्य जुड़ते नहीं । शून्य एक-दूसरे में खो जाते हैं। ये ध्यान कर रहे हैं। ये अभी शून्य की दशा में बैठे हैं। अभी ये नहीं हैं।' जिस क्षण तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम्हें फिर कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। फिर तो तुम एक ही रह जाते हो, न कोई देखने वाला, न कोई दृश्य, न कोई द्रष्टा । दृश्य और द्रष्टा खो गये, ज्ञाता और ज्ञेय खो गये, जो बच रहता है उसे हम दर्शन कहते हैं। इस बात को खयाल में लेना । साधारण भाषा में हम दर्शन कहते हैं द्रष्टा और दृश्य के बीच के संबंध को, शान कहते हैं ज्ञाता और ज्ञेय के बीच के संबंध को । लेकिन यह तो व्यावहारिक परिभाषा है। पारमार्थिक परिभाषा, आत्यंतिक परिभाषा बिलकुल उलटी है. जहां द्रष्टा और दृश्य नहीं रह गये, सिर्फ दर्शन बचा, शुद्ध दर्शन बचा चिन्मात्ररूपम्; जहां ज्ञाता और ज्ञेय खो गये, बस ज्ञानमात्र बचा। उसी को तो बार-बार अष्टावक्र कहते हैं : इति ज्ञान ! फिर जो बचता है, वही ज्ञान है। और फिर जो बचता है, वही मुक्ति है। ज्ञान मुक्त करता है। तो ज्ञान के पहले चरण.. 'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है। यह कोई सिद्धात नहीं है कि तुम सुन लो और मान लो। ये कोई गणित की परिभाषायें भी नहीं हैं कि सुनीं और मान लीं। ये तो जीवंत प्रयोग से ही तुम्हें पता चल सकते हैं। तुम जरा जिंदगी में झांकना शुरू करो इस तरह से, इस नये कोण से, कि तुम्हीं दिखाई पड़ रहे। जब कोई तुम्हें गाली देता है और तुम्हें दिखाई पड़ता है कि यह आदमी दुष्ट है, तब तुम जरा गौर से देखना. 'इसकी दुष्टता
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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