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________________ हद हो गयी। पूछा द्वारपाल से कि यह मामला क्या है? कहीं कुछ भूल-चूक तो नहीं हुई है ऐसा तो नहीं है, स्वागत का इंतजाम हमारे लिए किया था और हो गया उसका ? और अगर भूल-चूक नहीं हुई है, ऐसा ठीक ही हुआ है तो जरा रहस्य हमें समझा दो, यह मामला क्या है? उस द्वारपाल ने कहा परेशान मत हों, साधु तो सदा स्वर्ग आते रहे, यह राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है, इसलिए स्वागत..! और फिर कभी आयेगा दोबारा इसकी भी कोई संभावना नहीं है। तो किसी भूल-चूक से हो गयी बात हो गयी। राजनीति से बच गये, यह तो शुभ हुआ, यह तो महाशुभ हुआ। इन सब से बच गये, क्योंकि हार गये। हार सौभाग्य है। उसे वरदान समझना । हारे को हरिनाम ! वह जो हारा, उसी के जीवन में हरिनाम का अर्थ प्रगट होता है। जीता, तो अकड़ जाता है। तो यह प्रभु की कृपा, सौभाग्य कि हार गये। और शायद उसी हार के कारण यहां मेरे पास आ गये हो । अब पूछते हो कि ' आपके पास आ गया, कुछ आश्वस्त हुआ मालूम पड़ता हूं । और अब जानना चाहता हूं कि मेरी निजी गति और गंतव्य क्या है?' अब यहां आ गये तो अब यह निजपन भी छोड़ दो। निजपन के छोड़ते ही तुम्हारे गंतव्य का आविर्भाव हो जायेगा। यह मैं - पन छोड़ दो। इस मैं - पन में अभी भी थोड़ी-सी धूमिल रेखा पुराने संस्कारों की रह गयी है। वह जो राजनीतिज्ञ होना चाहता था, वह जो लेखक, पत्रकार, प्रसिद्ध होना चाहता था, वह जो सुखी-संपन्न गृहस्थ होना चाहता था, उसकी थोड़ी-सी रेखा, थोड़ी-सी कालिख रह गयी है। इस निजपन को भी छोड़ दो। इसको भी हटा दो। यह सब हार गया, अब तक जो तुमने किया, लेकिन अभी भीतर थोडा सा रस अस्मिता का बचा है, 'मैं' का बचा है। वह भी जाने दो। उसके जाते ही प्रकाश हो जायेगा । और तब पूछने की जरूरत न रहेगी कि गंतव्य क्या है? गंतव्य स्पष्ट होगा। तुम्हारी आंख खुल जायेगी। गंतव्य कहीं बाहर थोड़े ही है! गंतव्य कहीं जाने से थोड़े ही। कल सुना नहीं, अष्टावक्र कहते हैं : आत्मा न तो जाती, न आती । गता नहीं है आत्मा। तो गंतव्य कैसा? आत्मा वहीं है जहां होना चाहिए। तुम ठीक उसी जगह बैठे हो जहां तुम्हारा खजाना गड़ा है। तुम्हारे स्वभाव में तुम्हारा साम्राज्य है। बस यह थोड़ी-सी जो रेखा रह गयी है, वह भी स्वाभाविक है। इतने दिन तक उपद्रव में रहे तो वह उपद्रव थोड़ी-बहुत छाप तो छोड़ ही जाता है। उस छाप को भी पोंछ डालो। अब यहां तो भूल ही जाओ अतीत को। यह अतीत की याददाश्त भी जाने दो। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। अब तो समग्र भाव से यहां हो तो बस यहीं के हो रहो। न आगा न पीछा - यही क्षण सब कुछ हो जाये, तो इसी क्षण में परम शांति प्रगट। उस शांति में सब प्रगट हो जायेगा, सब स्पष्ट हो जायेगा । रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया जी में वसंत था, एक फूल ही दिया मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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