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________________ वे कहते हैं. यह तो हमें पता है कि हम हैं। तुमने ऐसा आदमी देखा जो मानता हो कि मैं नहीं हूं? ऐसा आदमी तुम कैसे पाओगे? क्योंकि यह मानने के लिए भी कि मैं नहीं ह मेरा होना जरूरी है।। मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर में छिपा बैठा है। किसी आदमी ने दवार पर दस्तक दी। उसने संध से देखा कि आ गया वही दूकानदार जिसको पैसे चुकाने हैं। उसने जोर से चिल्ला कर भीतर से कहा: 'मैं घर में नहीं हूं। वह दूकानदार हंसा। उसने कहा. हद हो गयी! फिर यह कौन कह रहा है कि मैं घर में नहीं हूं?' मुल्ला ने कहा : 'मैं कह रहा हूं कि मैं घर में नहीं हूं सुनते हो कि नहीं?' लेकिन यह तो प्रमाण है घर में होने का। मैं घर में नहीं हूं ऐसा कहा नहीं जा सकता। कौन कहेगा? आज तक दुनिया में किसी ने नहीं कहा कि मैं नहीं हूं। क्यों? क्योंकि 'मैं' का तो प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है, इसे इनकासे कैसे, इसे झुठलाओ कैसे! सारी दुनिया भी तुमसे कहे कि तुम नहीं हो, तौ भी संदेह पैदा नहीं होगा। तुम कहोगे. पता नहीं, दुनिया कहती है ऐसा! मुझे तो भीतर से स्पर्श हो रहा है, अनुभव हो रहा है, प्रतीति हो रही है कि मैं हूं। और अगर मैं नहीं हूं तो तुम किसको समझा रहे हो? कम से कम समझाने के लिए तो इतना मानते हो कि मैं हूं। यह जो भीतर: 'मैं का बोध है, अभी धुंधला- धुंधला है। जब प्रगाढ़ हो कर प्रगट हो जायेगा तो यही 'मैं ' का बोध परमात्म-बोध बन जाता है। इसी धुंधले -से बोध को, धुएं में घिरे बोध को प्रगाढ़ करने के लिए श्रद्धा में जाना जरूरी है। श्रद्धा का अर्थ फिर दोहरा दूं-विश्वास नहीं; जो है, उसको भरी आंख से देखना, खुली आंख से देखना। तुम हो! परमात्मा तुम्हारे भीतर तुम्हारी तरह मौजूद है। कहां भटकते हो? कहां खोजते हो? कहीं खोजना नहीं है। कहीं जाना नहीं है। सिर्फ भरी आंख, भीतर जो मौजूद ही है, उसे देखना है। देखते ही द्वार खुल जाते हैं मंदिर के। साक्षी अनुभव में आता है-श्रद्धा के भाव से। साक्षी का अर्थ है : मन को लुटाने की कला, मन को मिटाने की कला। कलियां मधुवन में गंध गमक मुसकाती हैं, मुझ पर जैसे जादू -सा छाया जाता है। मैं तो केवल इतना ही सिखला सकता हूं अपने मन को किस भांति लुटाया जाता है! तुमने कभी देखा, बाहर भी जब सौंदर्य की प्रतीति होती है तो तभी, जब थोड़ी देर को मन विश्राम में होता है! आकाश में निकला है पूर्णिमा का चांद, शरद की घे, और तुमने देखा और क्षण भर को उस सौंदर्य के आघात में, उस सौंदर्य के प्रभाव में, उस सौंदर्य की तरंगों में तुम शांत हो गये! एक क्षण को सही, मन न रहा। उसी क्षण एक अपूर्व सौंदर्य का, आनंद का उल्लास- भाव पैदा होता है। फूल को देखा, संगीत को सुना, या मित्र के पास हाथ में हाथ डाल कर बैठ गये-जहां भी तुम्हें सुख की थोड़ी झलक मिली हो, तुम पक्का जान लेना, वह सुख की झलक इसीलिए मिलती है कि कहीं भी मन अगर ठिठक कर खड़ा हो गया, तो उसी क्षण साक्षी-भाव छा जाता है। वह इतना क्षणभंगुर
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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