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________________ से संबंधित है, न कुरान से, न बुद्ध से, न कृष्ण से। जीवन तो यहां घेरे हुए है तुम्हें बाहर भीतर सब तरफ। और जीवन के पास कोई सिद्धात नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है। जीवन तो स्वयं ही अपना सिद्धात है। ऐसा समझो कि एक आदमी यहां आकर चिल्ला दे : ' आग! आग लग गई? आग!' अनेक लोग भाग खड़े होंगे, चाहे आग लगी हो चाहे न लगी हो। उन्होंने शब्द पर भरोसा कर लिया। अब 'आग' शब्द जला नहीं सकता। मैं लाख चिल्लाऊं आग आग आग, उससे तुम जलोगे नहीं, लेकिन अंगारा तुम्हारे हाथ पर रख दूं तो जलोगे। तो शब्द 'आग' आग नहीं है। और परमात्मा का कोई सिद्धात परमात्मा नहीं है, कोई शब्द परमात्मा नहीं है। जीवन के संबंध में जितनी धारणायें हैं, वे सब मनुष्य की भाषायें हैं-अज्ञात को शांत बनाने की चेष्टा है; किसी तरह अपरिभाषित को परिभाषा देने का उपाय है। नाम लगा दिया तो थोड़ी राहत मिलती है कि चलो हमने जान लिया। अब परमात्मा इतनी बड़ी घटना है, किसने कब जाना! कौन जान सकता है! जानने का तो मतलब होगा परमात्मा को आर-पार देख लिया। आर-पार देखने का तो मतलब होगा उसकी सीमा है। जिसकी सीमा है, वह परमात्मा नहीं। जो असीम है, जिसका पारावार नहीं है न प्रारंभ है न अंत है-तुम उसको पूरा-पूरा कैसे जानोगे? कभी नहीं जानोगे! उसका रहस्य तो रहस्य ही रहेगा। विज्ञान कहता है : हम दो शब्द मानते हैं-ज्ञात और अज्ञात; नोन और अननोन। विज्ञान कहता है : ज्ञान वह है जो हमने जान लिया और अज्ञात वह है जो हम जान लेंगे। धर्म कहता है. हम तीन शब्द मानते हैं-ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय। ज्ञात वह है जो हमने जान लिया। अज्ञात वह है जो हम जान लेंगे। अज्ञेय, वह जो हम कभी नहीं जान पायेंगे। परमात्मा अज्ञेय है। उस अज्ञेय में श्रद्धा.। सभी जानने पर समाप्त नहीं हो जाता, इस भाव का नाम श्रद्धा है। जो जान लिया वह तो क्षुद्र हो गया। जो अनजाना रह गया है, वही विराट है। इस बात का नाम श्रद्धा है। अब तक श्रद्धा की बात नहीं उठाई थी अष्टावक्र ने, आज अचानक श्रद्धा की बात आ गई। उगैर एक बार नहीं, दो बार दोहराते हैं, कहते हैं. 'श्रद्धा कर, श्रद्धा कर!' जब कोई छलांग लगाने को हो रहा है तो अतीत पकड़ता है पूरा, रोकता है। अतीत का बड़ा बल है! जन्मों-जन्मों तक तुम जिसके साथ जीये हो, उस आदत का बड़ा बल है। वह आदत खींचती है जंजीर की तरह। वह कहती है. 'कहां जाते? किस अनजान रास्ते पर जाते? भटक जाओगे। जाने परिचित में चलो। ऐसे रास्ते से मत उतरो। यह जो राजमार्ग है, इस पर ही चलो। सभी इस पर चलते रहे हैं। हिंदू हो तो हिंदू रहो। मुसलमान हो तो मुसलमान रहो। कुरान पढ़ते रहे तो कुरान पढ़ते रहो, गीता दोहराते रहे तो गीता दोहराते रही। यह परिचित है। यह तुम कहां उतरे जाते हो? जीवन! जीवन बहुत बड़ा है। अस्तित्व अस्तित्व विराट है। तुम बहुत छोटे हो। बूंद की तरह खो जाओगे सागर में पता भी न चलेगा, लौट भी न सकोगे फिर। सम्हल जाओ!' अतीत पूरे जोर से खींचता है। इस घड़ी को सामने खड़ा देख कर अष्टावक्र -कहने लगे ' श्रद्धत्स्व! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर।' श्रदयत्स्व तात श्रदयत्स्व नात्र मोह कुरुत्स्व भोः।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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