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________________ अब तक अष्टावक्र ने जनक के लिए इस शब्द का उपयोग न किया था, अब वे उपयोग करते है। वे कहते हैं : 'हे सौम्य! हे समाधि के निकट पहुंच गये जनक हे समता में ठहरने वाले जनक!' और जब कोई समता को उपलब्ध होता है तो सुंदर हो जाता है। सौंदर्य समता की ही छाया है। अगर कभी शरीर भी किसी का सुंदर मालूम होता है तो इसीलिए मालूम होता है कि शरीर में एक अनुपात है, एक समत्व है। शरीर में एक सिमिट्री है। कोई अंग बहुत बड़ा, कोई अंग बहुत छोटा-ऐसा नहीं सब समतुल है, जैसा होना चाहिए वैसा है। सौंदर्य का यही अर्थ है कि सब चीजें ठीक-ठीक अनुपात में हैं और एक दूसरे के साथ समस्वरता है। ऐसा मत सोचना तुम कि किसी सुंदर नाक को ले लो, किसी सुंदर आंख को ले लो, किसी सुंदर बालों को ले लो, सुंदर हाथों को ले लो और सबके जोड़ से तुम सुंदर स्त्री या सुंदर आदमी बना सकोगे ऐसा मत सोचना। शायद उससे ज्यादा कुरूप कोई और चीज ही न होगी। क्योंकि सौंदर्य न तो नाक में है, न आंख में है, न बाल में है; सौंदर्य तो समत्व में है। सौंदर्य तो समग्र की एक अनुपात व्यवस्था में, छंदोबद्धता में है। तुम बहुत-सी सुंदर चीजों को इकट्ठा करके सौंदर्य को जन्मा न सकोगे। सौंदर्य को स्मरण रखो-स्व छंद है, लयबद्धता है, मात्रा-मात्रा तुली है। तो शरीर का सौंदर्य होता है; और फिर मन का भी सौंदर्य होता है, और फिर आत्मा का सौंदर्य भी होता है। मन का सौंदर्य तब होता है जब किसी व्यक्ति में गुणों में एक समस्वरता होती है, विरोधाभास नहीं होता। एक चीज दूसरी चीज की विपरीत नहीं होती। सब चीजें एक ही धारा में बहती हैं। एक गहरी संगति और संगीत होता है। मन का सौंदर्य होता है जब मन एक ही दिशा में गतिमान होता है। ऐसा नहीं कि आधा हिस्सा पूरब जा रहा है, आधा पश्चिम जा रहा, आधा यहीं पड़ा; कुछ कहीं जा रहा, कुछ कहीं जा रहा; कई घोड़ों पर सवार, ऐसा नहीं; अनेक नावों पर सवार, ऐसा नहीं-स्व ही यात्रा है, एक ही गंतव्य है, और सारा चित्त एकजुट है। जब भी कभी तुम ऐसा व्यक्ति पाओगे जिसका चित्त एक धारा में बह रहा है, छिन्न-भिन्न नहीं है, तब तुम पाओगे एक मन का सौंदर्य। एक प्रसाद उस व्यक्ति के पास मिलेगा। फिर आत्मा का सौंदर्य है। आत्मा का सौंदर्य तब है जब आत्मा जागती है और समाधि के करीब आने लगती है। जनक को अष्टावक्र कहते हैं 'हे सौम्य!' यह वैसी दशा है जैसी कभी-कभी सुबह तुम्हें होती है; अभी जाग भी नहीं गये हो और सोये भी नहीं हो। थोड़े-थोड़े जाग भी गये हो, थोड़े- थोड़े सोये भी हो-अलसाये हो। आवाजें भी सुनाई पड़ने लगीं बाहर की। दूध वाला दस्तक दे रहा है द्वार पर वह भी पता चल रहा है। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे, दौड़-धूप कर रहे हैं, वह भी स्मरण में आ रहा है। पत्नी चाय बनाने लगी, केतली की आवाज भी धीमी-धीमी कान में पड़ने लगी, गंध भी नाकों में आने लगी। शायद खिड़की से सूरज की किरण भी आ रही है, वह भी चेहरे पर पड़ रही है और ताप मालूम होने लगा है। फिर भी अभी अलसाये हो। अभी पूरे जाग नहीं गये। नींद सरकती-सरकती विदा हो रही है। ऐसी अवस्था जब आदमी के आत्यंतिक जगत में, आतरिक जगत
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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