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________________ जग मौन में जिसको बुलाता जो न हो कर भी बना सीमा क्षितिज वही रिक्त हूं मैं विरति में भी चिर विरत की बन गई अनुरक्ति हूं मैं बोलता मुझमें वही जग मौन में जिसको बुलाता! लेकिन जब तुम मौन होओगे, तभी समझोगे कि तुम्हारे मौन में परमात्मा ही बोला है। कोई और बोल ही नहीं सकता, कोई और है ही नहीं। तुम्हारे प्रेम में भी वही था, तुम्हारे काम में भी वही, तुम्हारे राम में भी वही, तुम्हारी प्रार्थना में भी वही। सब उसकी ही झलकें हैं। अनेक अनेक रूपों में वही है। इसे मैं कहता हूं. अदवैत! मेरा ब्रह्म माया के विरोध में नहीं है। मेरा ब्रह्म माया में छिपा छिया-छी कर रहा है। मेरा ब्रह्म माया में अनेक- अनेक रूपों में प्रगट है। इश्क का जौके -नजारा मुफ्त में बदनाम है हुस्न खुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए। यह जो फूलों में से झांक रहा है, यह परमात्मा उत्सुक है जलवे दिखाने के लिए। यह जो किसी स्त्री के चेहरे से सुंदर हो कर प्रगट हुआ है हुस्न खुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए। यह जो किसी बच्चे की सरल, निर्दोष आंखों में झलका है, यह खुद परमात्मा उत्सुक है, आमंत्रण दे रहा है। यह तो तुम पीछे समझोगे। आज तो और कठिनाई बढ़ गई है बहु त। तुम्हारे धर्मगुरुओं ने तुम्हें जो सिखाया है, वह कुछ ऐसा मूढ़तापूर्ण है कि हर चीज में बंधन का डर खड़ा कर दिया है। हर चीज में घबड़ाहट पैदा कर दी है, अपराध- भाव पैदा कर दिया है। अगर तुम किसी के प्रेम में अनुरक्त हुए तो भीतर अपराध होता है कि यह क्या पाप कर रहा हूं। कोई आख तुम्हें सुंदर लगी आकर्षक लगी तो घबडाहट पैदा होती है कि जरूर पाप हो रहा है। ऋषि-मनि सदा कहते रहे : ___मैं तुमसे कहता हूं इस आख में थोड़े गहरे उतरो। थोड़े और आगे चलो। तांबा मिलेगा माना, चांदी भी है, सोना भी है, हीरे -जवाहरात भी हैं। और थोड़ा आगे चलो, धन के पार ध्यान भी है। जो हृदय व्योमवत, विगत कलुष उभरेगा उसमें इंद्रधनुष रचना का कारण शून्य स्वयं मम त्वम से जिसका मुक्त अहं। 'मैं और 'तू से मुक्त हो जाओ। इसी के लिए सारा संसार आयोजन है। इतनी पीड़ा मिलती
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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