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________________ सब कालिख–कलुष के पार है। इतना ही ध्यान, इतना ही योग, इतनी ही सारी धर्म की प्रक्रिया है कि तू पहचान ले कि जागरण तेरा स्वभाव है, चैतन्य तेरा स्वभाव है, निर्विकल्प, असंग तेरा स्वभाव है। इतना जान ले, फिर तुझे जो करना है कर! फिर जैसे-तैसे तुझे जीना है जी । फिर कोई बंधन नहीं है। इतनी क्रांति, इतनी स्वतंत्रता तो धर्मगुरु नहीं दे सकता। इसलिए तो अष्टावक्र का कोई पंथ न बन सका और अष्टावक्र का कोई मंदिर खड़ा न हो सका, और अष्टावक्र के पुरोहित न हुए और अष्टावक्र अकेला खड़ा रह गया। इतनी स्वच्छंदता के लिए समाज तैयार नहीं। समाज गुलामों का है और समाज चाहता है गुलामी को कोई सजाने वाला मिल जाए जो सजा कर बता दे कि गुलामी बहुत भली है तो निश्चित हो गए, गहरी नींद में सो जाएं। जगाने वालों से पीड़ा होती है। लेकिन, जो मुझे समझने की चेष्टा में रत हैं, उन्हें जान लेना चाहिए. मैं परमात्मा को पूरा का पूरा स्वीकार करता हूं उसके चार्वाक रूप में भी और जगत में मुझे कुछ भी अस्वीकार नहीं है। सिर्फ एक बात ध्यान रहे कि कोई चीज अटकाए न। हर चीज का उपयोग कर लेना और बढ़ जाना । हर पत्थर पर पैर रख लेना, सीढ़ी बना लेना, और ऊपर उठ जाना। मार्ग पर जो पत्थर पड़े हैं वे सीढ़ियां भी बन सकते हैं। तुम उन्हें अटकाव न बना लेना । चार्वाक अटकाव बन सकता है, अगर तुम छोड़ो कि बस, चार्वाक पर सब समाप्त हो गया। वह केवल पूर्वार्ध है, उसे अंत मत मान लेना, उससे आगे जाना है। लेकिन उससे आगे उससे होकर ही जाना है, गुजर कर ही जाना है। मैंने सुना है, एक पुरानी सूफी कथा है। एक लकड़हारा रोज जंगल में लकड़ी काटता था। एक सूफी फकीर बैठता था ध्यान करने, उसने इसे देखा : जन्मों-जन्मों से यह काटता रहा हो, ऐसा मालूम पड़ता है। जीर्ण -शीर्ण देह, का हो गया। और इससे एक दफा रोटी भी मुश्किल से मिल पाती होगी। तो उससे कहा. 'देख, तू इस जंगल में रोज आता है, तुझे कुछ पता नहीं । तू थोड़ा आगे जा । उसने कहा : 'आगे क्या है?' उसने कहा. 'तू थोड़ा आगे जा, खदान मिलेगी।' वह आगे गया, वहां एक तांबे की खदान मिली। वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा : मैं सदा यहां आता रहा, जरा आगे न बढ़ा, बस, लकड़ियां काटीं और जाता रहा। जरा ही कुछ थोड़े ही कदम चल कर खदान थी। तांबा ले गया, तो लकड़ी के बेचने से तो एक दफे रोटी मिलती थी, एक दफा तांबा बेचने से इतना पैसा मिलने लगा कि महीने भर का भोजन चल जाए। जब दुबारा फिर आया तो उस फकीर ने कहा कि देख, अटक मत जाना; थोड़ा और आगे। तो उसने कहा. 'अब आगे और क्या करना है जा कर ?' उसने कहा: 'तू जा तो! सुन, मेरी सीख मान । मैं यह पूरा जंगल जानता हूं । वह और थोड़े आगे गया तो चांदी की खदान मिल गई। वह बोला. 'मैं भी खूब पागल था। उस फकीर की स्कार न मानता तो अटक जाता तांबे पर ।' चांदी बेच दी तो साल भर के लायक भोजन मिलने लगा, बड़ा मस्त था। एक दिन फकीर ने कहा कि देख, ज्यादा मस्त मत हो, और थोड़ा आगे । उसने कहा : ' अब छोड़ो भी, अब मुझे कहीं न भेजो। अब बस काफी है, बहुत मिल गया। फकीर ने कहा. 'वैसे तेरी मर्जी है, लेकिन पछताएगा।' बात मन में चोट कर गई। थोड़ा और आगे गया, सोने
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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