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________________ एतावदेव विज्ञानं! बहुत करीब है और मन में तरंगें उठती रहती हैं और तरंगों की छाया चैतन्य पर बनती रहती है। जब तक तुम मन की तरंगों को साक्षी भाव से देखोगे न... । और साक्षी भाव को समझ लेना । मन में कामवासना उठी; तुमने अगर कहा, बुरी है तो साक्षीभाव खो गया। तुमने तो निर्णय ले लिया। तुम तो जुड़ गये - विपरीत जुड़ गए लड़ने लगे। तुमने कहा, भली है - तो भी साक्षी भाव खो गया। कामवासना उठी; न तुमने कहा भली, न तुमने कहा बुरी, तुमने कोई निर्णय न लिया, तुम सिर्फ देखते रहे, तुम सिर्फ देखने वाले रहे तुम जरा भी जुड़े नहीं । न प्रेम में न घृणा में, न पक्ष में न विपक्ष में, तुम सिर्फ देखते रहे- अगर तुम क्षण भर भी देखते रह जाओ तो चकित होओगे। तुम्हारे देखते रहने में ही धुएं की तरह वासना उठी और खो भी गई। और उसके खोते ही पीछे जो शून्य रिक्त छूट गया था, अपूर्व है उसकी शांति, उसका आनंद! उसका अमृत अपूर्व है! और उसके कककण तुम इकट्ठे करते जाओ, तो धीरे- धीरे तुम बदलते जाओगे। एक-एक बूंद करके किसी दिन तुम्हारा घड़ा अमृत से भर जाएगा। हम तो मन से जीते हैं और मन के कारण, जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। एक नई विधवा ने बीमा कंपनी में जा कर मैनेजर से पति के बीमे की रकम मांगी। तो मैनेजर ने शिष्टाचार के नाते उसे कुर्सी पर बैठने का संकेत किया और कहा. 'हमें आप पर आई अचानक विपत्ति को सुन कर बड़ा दुख हुआ देवी जी!' देवी जी ने बिगड़ कर कहा: 'जी ही, पुरुषों का सब जगह वही हाल है। जहां स्त्री को चार पैसों के मिलने का अवसर आता है, उन्हें बड़ा दुख होता है। ' वह बेचारा कह रहा था कि तुम्हारे पति चल बसे, हमें बड़ा दुख है; लेकिन स्त्री को पति की अभी फिक्र ही न होगो । अभी उसका सारा मन तो एक बात से भरा होगा कि इतने लाख मिल रहे हैं- कितनी साड़ी खरीद लूंगी, कोन-सी कार, कोन - सा मकान ! उसका चित्त तो एक जाल से भरा होगा और इसका उसे पता नहीं; और वह जो भी सुनेगी, अपने मन के द्वारा सुनेगी । उसको तो एक ही बात समझ में आई होगी कि ' अच्छा, तो तुम्हें दुख हो रहा है ! तो मेरे मकान और मेरी कार और मेरी साड़ियां वह सब जो मैं खरीदने जा रही हूं.. ।' उसने अपना ही अर्थ लिया। मन सदा तुम्हारे ऊपर रंग डाल रहा है। और मन के कारण तुम जो अर्थ लेते हो जीवन के वे सच्चे नहीं हैं; वे तुम्हारे मन के हैं। एक महिला एक बस में दस-बारह बच्चों को ले कर सफर कर रही थी। इतने में उसके पास बैठे मुल्ला नसरुद्दीन ने सिगरेट पीना शुरू कर दिया। औरत को यह पसंद न आया। वह नाराज हो गई। और बोली : 'आपने देखा नहीं, महानुभाव? यहां लिखा है, बस में धूम्रपान करना मना है।' मुल्ला कहा : 'लिखने में क्या धरा है? अरे, लिखने को तो हजार बातें लिखी हैं। यहां तो यह भी लिखा हुआ है. दो या तीन बस । तो ये दस-बारह कैसे ? लिखने में क्या धरा है?" आदमी जो भी निर्णय लेता है, जो भी बोलता है, जो भी करता है, उसमें उसके मन की छाया है। यह मुल्ला सोच रहा होगा दस-बारह बच्चे ! यह दस-बारह बच्चों से परेशान हो रहा होगा। शायद
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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