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________________ 'उसके घर देर है, अंधेर नहीं।' कहते हैं 'जरा ठहरो! इस जन्म में कर लेने दो, अगले जन्म में देखना, जो बेईमान है वह सडेगा !' यह बड़ी हैरानी की बात है, आग में हाथ डालो तो अभी जल जाता है, जरा देर नहीं है; चोरी करो तो अगले जन्म में पाप का फल मिलता है ! ईमानदारी करो तो अभी जीवन में सुख नहीं मिलता, अगले जन्म में मिलता है! कहीं यह चार सौ बीसी और तरकीब तो नहीं? यह कहीं समाज के शोषकों का जाल तो नहीं है? किसको तुम महात्मा कहते हो? तुम्हारे अधिकतर महात्मा समाज की जड़ शोषण से भरी व्यवस्था के पक्षपाती रहे हैं। सदकर्म वे उसी को बताते हैं जो समाज की स्थिति -स्थापकता को कायम रखता है, असदकर्म उसी को बताते हैं जो समाज की स्थिति को तोड़ता है - जिनके पास है उनकी स्थिति डावाडोल न हो जाये । इसलिए तो मैंने कहा कि सेठ जी और संन्यासी में एक संबंध है और इसलिए तुम्हारा संन्यासी सत्यानाशी है। इस देश में कोई क्रांति नहीं घट सकी सामाजिक तल पर नहीं घट सकी, क्योंकि हमने ऐसी तरकीबें खोज लीं कि क्रांति असंभव हो गई। हमने क्रांति-विरोधी तरकीबें खोज लीं। हमारे अनेक सिद्धात क्रांति-विरोधी तरकीबें हैं। तो तुम्हारे महात्मा कहते रहे, माना; लेकिन तुम्हारे जो महात्मा कहते रहे, उसमें बहुत बल नहीं है, वह धोखा है। इसलिए उसका कोई परिणाम भी नहीं हुआ है। फिर तुम्हारे महात्मा जो कहते रहे, वह प्रकृति और स्वभाव के अनुकूल नहीं मालूम पड़ता है प्रतिकूल है। अब लोगों को उल्टी-सीधी बातें समझाई जा रही हैं, जो नहीं हो सकतीं, जो उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ती। जब नहीं हो सकतीं तो उनके मन में अपराध का भाव पैदा होता है। जैसे आदमी को भूख लगती है, अब तुम उपवास समझाते हो; तुम कहते हो. 'उपवास -- सदकर्म ! भूख - पाप! उपवास-सदकर्म! तो उपवास करो !' अब यह शरीर का गुणधर्म है कि भूख लगती है। यह स्वाभाविक है। इसमें कहीं कोई पाप नहीं है। और उपवास में कहीं कोई पुण्य नहीं है। अब यह एक ऐसी खतरनाक बात है, अगर सिखा दी गई कि उपवास करो, यही पुण्य है, तो तुम सीख बैठे। अब तुम उपवास करोगे तो परेशानी में पड़ोगे, क्योंकि भूख लगेगी - तो लगेगा. कैसा पापी हूं मुझे भूख लग रही है अगर भोजन करोगे तो अपराध - भाव मालूम पड़ेगा कि मैं भी कैसा हूं कि अभी तक उपवास करने में सफल नहीं हो पाया! अब तुमको डाल दिया एक ऐसे जाल में जहां से तुम बाहर न हो सकोगे। 'कामवासना पाप है!' कामवासना से तुम पैदा हुए हो। जीवन का सारा खेल कामवासना पर खड़ा है। तुम्हारा रोआं- रोआं कामवासना से बना है । कण-कण तुम्हारी देह का काम - अणु से बना है। अब तुम कहते हो. कामवासना पाप है! मेरे पास युवक आ जाते हैं। वे कहते हैं : बड़े बुरे विचार उठ रहे हैं। मैं उनसे पूछता हूं 'तुम मुझे कहो भी तो कोन-से बुरे विचार उठते हैं!' वे कहते हैं. 'अब आपसे क्या कहना, आप सब समझते हैं। बड़े बुरे विचार उठ रहे हैं!' यह तुम्हारे साधु-महात्माओं की कृपा है। और जब पूछताछ करता हूं उनसे जब बहुत खोदता हूं तो वे कहते हैं कि स्त्रियों का विचार मन में आता है। इसमें क्या बुरा विचार
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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